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सत्य हरिश्चद्र
क्या उपाय बतलाऊँ, तुम हो पतिव्रता पति हितकारी, क्यों न स्वयं को बेंच, मेट दो भूपति की विपदा सारी ।"
तारा यह सुनकर न जरा भी क्षुब्ध तथा संत्रस्त हुई, आलोकित हो उठा कर्म पथ, अँधियाली विध्वस्त हुई ।
अगर आज की नारी होती मुँह बिचका गाली देती, साथ संकटापन्न प्राण- पति की भी खूब खबर लेती ||
"धन्य धन्य, श्रद्धय ऋषीश्वर ! ठीक मार्ग बतलाया है, ऋण परिशोधन की गुत्थी का सिरा समझ में आया है । भूलेगी उपकार आप का नहीं स्वप्न में भी तारा, कोटि कोटि चरणों में वन्दन, मेट दिया संकट सारा ।
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अभी आपका ऋण चुकता है, रवि के छिपने से पहले, तारा, पति को मुक्त करेगी भले कोटि संकट सहले ।”
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तारा का मुख चन्द्र हर्ष की दिव्य ज्योति से चमक उठा, रोम रोम नवोत्साह का नाद जोर से गमक उठा ।
कौशिक चकित विलज्जित मन में, नारि नहीं, यह तो है शक्ति, रोष-क्लेश का नाम नहीं हैं, कैसी अनुपम पति की भक्ति ।
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