________________
आत्म-विक्रय
हरिश्चन्द्र का सत्य पर कितना दृढ़ विश्वास,
बने स्वयं को बेच कर भंगी के घर दास । भारतीय इतिहास - जगत में यह इक अमर कहानी है, कालचक्र की प्रखर प्रगति भी मेट न सकी निशानी है। क्या गाँवों, क्या शहरों में सब ओर सत्य महिमा फैली, हरिश्चन्द्र की जीवन - रेखा कभी नहीं होगी मैली !
केवल वचन मात्र का प्रण है, इस पर राज्य वैभव छोड़ा, वंश परम्परा - प्राप्त स्वर्ण के आसन से नाता तोड़ा। सत्य • धर्म की रक्षा के हित कष्टों से न झिझकता है, कौशल का सम्राट आज सानन्द विपणि में विकता है ! तारा ने कौशिक का ज्योंही कटुक व्यंग स्वीकार किया, दासी बन कर सत्य पूर्ति का अग्नि मार्ग स्वीकार किया ! हरिश्चन्द्र के मन पर त्योंही घोर वज्र विनिपात हुआ, मुर्छा खाकर पड़ा धरणि पर, मानों पक्षाघात हुआ ! मानव आखिर मानव है, सहसा न कष्ट सह सकता है, देख स्व-पत्नी बिकते, आखिर कौन अचल रह सकता ! हरिश्चन्द्र की आँखें निष्प्रम, दृष्टि-शक्ति परिलुप्त हुई, अंग - अंग की अखिल चेतना • शक्ति सर्वथा सुप्त हुई ! तारा की आँखों में पति की दशा देख आँसू आए, रोहित चीख उठा, हा, उसके कोमल तन - मन कुम्हलाए !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org