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सत्य हरिश्चन्द्र
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सूर्य देव चढ़ते चढ़ते चढ़ आये, मध्य गगन - तल में, प्रखर धप के कारण ज्वाला, लगी निकलने भूतल तीव्र और उत्तप्त पवन भी, दावानल सा जलता है, सन सन करता, अंग झुलसता, धूल उड़ाता चलता है ! नृपति गर्मी सह न सके आँखों में अँधियारा छाया,
ओष्ठ, कण्ठ थे शुष्क, प्यास से तन डोला चक्कर आया । मूर्च्छा खाकर पड़े भूमि पर, तारा - रोहित घबराये,
हा हा की ध्वनि गूँज उठी, आँखों में अश्रु छलक आये । तारा विचलित होते होते सँभल गई दृढ़ साहस कर, शीघ्र दौड़ कर इक ऊँचे से टीले पर देखा चढ़ कर । कुछ दूरी पर दिया दिखाई, एक सरोवर जल - पूरित, ताराका सन्तप्त विकल मन, हुआ हर्ष से परिपूरित । शीघ्र दौड़ती हुई सरोवर के, तट पर पहुंची रानी, पत्र का पुटक बना कर, सहसा भर लाई पानी । रोहित इधर विमूच्छित नृप पर, व्यजन पत्र का भलता है, आकर देखा तो माता का, स्नेही हृदय उछलता है । शीतल जल के छींटों से, भूपति की मूर्च्छा दूर हुई,
कमल
तारा के मन की क्या पूछो ? आज खुशी भरपूर हुई । हरिश्चन्द्र ने सावधान हो, अमृत सा जल पान किया,
स्वस्थ - चित्त होकर तारा का, श्री मुख से सम्मान किया ! "तारा तुम सचमुच देवी हो, क्षत्रिय कुल की बाला हो, संकट में भी धर्म न खोती, दृढ़ साहस की ज्वाला हो ।
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