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________________ १४ सत्य हरिश्चन्द्र सत्य - विरोधी पूर्व देव वह, घात लगाये लखता था, हरिश्चन्द्र अब कहाँ, किस तरह, मन के भाव परखता था । हरिश्चन्द्र को वन में जाते देखा, शान्त नितान्त अचल, किन्तु बुभुक्षा की पीड़ा से, रोहित देखा क्षुब्ध विकल । वद्धा का धर रूप, शीश पर रख, कर मोदक की डलिया, आया एक पार्श्व से डगमग करता, छलने को छलिया। वद्धा मोदक की डलिया को, बार - बार दिखलाती है, क्षुधा - विकल रोहित के मन को, बार - बार ललचाती है । सोचा- "राजा क्षुधित पुत्र के लिए, इसे तो मांगेंगे, आज सर्वथा निश्चित है, निज राज • धर्म को त्यागेंगे।" हरिश्चन्द्र तारा अति दृढ़ हैं, भिक्षा का संकल्प नहीं, कृष्ण - घटाओं में भी रवि का, दब सकता है तेज कहीं ? रहा सर्वदा देने के ही लिये, हाथ जिनका ऊपर, आज दुःख में पड़ कर भी, क्या माँगेंगे कर नीचा कर ? रोहित भी तेजस्वी क्षत्रिय - भावों में पलता आया, जैसे मात - पिता, वैसा ही सुत भी जग में कहलाया। धीर, वीर, तेजस्वी बालक, स्वयं किसी से क्या माँगे ? अगर स्वयं भी कोई दे तो, ठुकरा कर सहसा भागे ! दो दिन का भूखा है रोहित, क्या मजाल फिर भी माँगे, बालक है, फिर भी रवि - कुल की मर्यादा कैसे त्यागे ? छलिया देव हार कर आखिर, लज्जित मुख हो चला गया, राजा तो क्या, रोहित-सा शिशु भी न जरा भी छला गया ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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