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सत्य हरिश्चन्द्र
सत्य - विरोधी पूर्व देव वह, घात लगाये लखता था,
हरिश्चन्द्र अब कहाँ, किस तरह, मन के भाव परखता था ।
हरिश्चन्द्र को वन में जाते देखा, शान्त नितान्त अचल,
किन्तु बुभुक्षा की पीड़ा से, रोहित देखा क्षुब्ध विकल । वद्धा का धर रूप, शीश पर रख, कर मोदक की डलिया,
आया एक पार्श्व से डगमग करता, छलने को छलिया।
वद्धा मोदक की डलिया को, बार - बार दिखलाती है,
क्षुधा - विकल रोहित के मन को, बार - बार ललचाती है । सोचा- "राजा क्षुधित पुत्र के लिए, इसे तो मांगेंगे,
आज सर्वथा निश्चित है, निज राज • धर्म को त्यागेंगे।" हरिश्चन्द्र तारा अति दृढ़ हैं, भिक्षा का संकल्प नहीं,
कृष्ण - घटाओं में भी रवि का, दब सकता है तेज कहीं ? रहा सर्वदा देने के ही लिये, हाथ जिनका ऊपर,
आज दुःख में पड़ कर भी, क्या माँगेंगे कर नीचा कर ? रोहित भी तेजस्वी क्षत्रिय - भावों में पलता आया,
जैसे मात - पिता, वैसा ही सुत भी जग में कहलाया। धीर, वीर, तेजस्वी बालक, स्वयं किसी से क्या माँगे ?
अगर स्वयं भी कोई दे तो, ठुकरा कर सहसा भागे ! दो दिन का भूखा है रोहित, क्या मजाल फिर भी माँगे,
बालक है, फिर भी रवि - कुल की मर्यादा कैसे त्यागे ?
छलिया देव हार कर आखिर, लज्जित मुख हो चला गया,
राजा तो क्या, रोहित-सा शिशु भी न जरा भी छला गया !
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