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सत्य हरिश्चन्द्र
अगर आज तुम विचलित होती, नहीं समय पर जल लाती,
सच कहता हूँ, हरिश्चन्द्र को फिर क्या दुनिया लखपाती !" "भ्रान्ति मूढ था, मैं तो तुमको साथ न अपने लाता था,
पत्नी के उन्नत गौरव को, झंझट समझ भुलाता था। किन्तु आज तुमने नारी का, दिव्य रूप दिखला दीना,
चिर भविष्य के लिये समुज्वल नारी-जगत का मुख कीना।" "नाथ, तुच्छ-सी दासी को क्या इतने पर, इतना गौरव ?
कार्याधिक यश-गौरव पाकर, मिलता है निश्चय रौरव ।
सूझ, समय पर आ जाने से, बस जल ही तो लाई हूँ, __ यदि इतना भी कर न सकू, तो व्यर्थ संग फिर आई हूँ।"
"रानी ! तुमको वन का जीवन, दुःख - पूर्ण लगता होगा,
हाँ, अवश्य यह सुख से दुःख का, परिवर्तन खलता होगा ? मेरे कारण तुमको भी यह, दुःख उठाना पड़ता है,
रोहित - से प्यारे सुत को भो, संकट सहना पड़ता है।" "नाथ ! दुःख की क्या कहते हैं ? सुख-दुख है खाली माया,
बाहर से सम्बन्ध नहीं कुछ है अन्तर मन की छाया । ।
बाहर के सुख में भी दुःख की, काली घटा उमड़ती है,
कभी बाह्य दुःख में भी सुख की, मधुमय गंगा बहती है।" "नाथ ! नगर के जीवन से तो, वन का जोवन सुन्दर है,
काम, क्रोध, मद की झंझट से, मुक्त प्रदेश, हितकर है।
भारी भरकम पुर-जीवन से कितना हल्का वन • जीवन,
वन्य प्रकृति के मुक्त पवन से स्वस्थ सबल होता तन मन ।"
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