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काष्ठव शंकुभिर्वापि शूलैरश्मभिरेव वा ।
ये मार्गानुरुन्धन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ६६, १३ - जो काष्ठ अर्थात् लक्कड़ों से, शंकुओं से, पत्थरों से यात्रियों के परम्परागत चालू मार्गों का हैं, रुकावट डालते हैं, वे नरकगामी हैं ।
क्षेत्रवृत्ति गृहच्छेदं प्रीतिच्छेदं च ये नरा | आशाच्छेदं प्रकुर्वन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ६६, १७ - जो मनुष्य क्षेत्रवृत्ति, गृहच्छेद - घर का नाश, परस्पर प्रेम का भंग, आशाओं का भंग करते हैं, वे नरकगामी हैं । अनाथं विक्लवं दीनं रोगातं वृद्धमेव च । नानुकम्पन्ति ये मूढारते वै निरयगामिनः ॥ ६६, १८
- जो मूढ़ जन, अनाथ, अपंग, दीन, रोगी, और वृद्ध आदि की यथोचित अनुकम्पा भाव से सेवा नहीं करते, वे नरकगामी हैं । वर्णन बहुत विस्तृत है, किन्तु कुछ विशेष कार्यों का उल्लेख मात्र करके पद्मपुराण की उक्त चर्चा को किनारे पर लगा रहे हैं ।
कांटों से, और अवरोधन करते
जो लोग, नास्तिक, मर्यादाभंगी और काम विषयक भोगलोलुप हैं, जो दान देने को प्रतिज्ञा करके बाद में इनकार करते हैं, जो दूसरों की पत्नी, नौकर और बच्चों को बहकाते हैं, जो माता - पिता और गुरुजनों की यथोचित सेवा नहीं करते हैं, जो आश्रम, कन्या, सुहृद, साधु, गुरु-जन की सेवा आदि सत्कर्म, नहीं करते और जो द्वार पर भोजनार्थ आये हुए पूज्य अतिथियों को इनकार करते हैं, तथा समय पर आलस्यवश अपने आराध्य देव का स्मरण नहीं करते हैं- इत्यादि सत्कर्मों से भ्रष्ट तथा कुकृत्यों में सहर्ष संलग्न अज्ञानी जन भी नरकगामी होते हैं ।
पद्मपुराण के उपर्युक्त नरक गामीता के वर्णन से प्रस्तावित विषय काफी स्पष्ट हो जाता है । अन्य पुराणों में भी इसी प्रकार के प्रायः मिलते-जुलते वर्णन हैं । किन्तु बैष्णव समाज में विष्णु पुराण का प्राय: सर्वाधिक महत्त्व है | अतः लेख का उपसंहार करते हुए विष्णु पुराण, द्वितीय अंश में से भी प्रस्तुत विषय से संबंधित कुछ विशिष्ट उल्लेखों को सूचना देने का मन हो गया है
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कूटसाक्षी तथा सम्यक् - पक्षपातेन यो वदेत् । यश्चान्यदनृतं वक्ति स नरो याति रौरवम् ॥
ये हैं नरक लोक के यात्री :
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