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-जो पुरुष कूट-साक्षी (झूठी गवाही देने वाला) है तथा जो पक्षपात से यथार्थ नहीं बोलता है और जो मिथ्या - भाषण करता है, वह रौरव नरक में जाता है।
वेगीपुयवहे चैको याति मिष्टान्नभुङ नरः ॥ २, १८
-दुस्साहसी, निष्ठुर कर्म करनेवाला तथा साथियों को वंचित कर अकेले ही मिष्टान्न आदि सुस्वादु भोजन करनेवाला उस पूयवह नरक में जाता है-जहाँ मवाद - पस आदि का गंदा प्रवाह बहता रहता है। __ असिपत्रवनं याति वनच्छेदी वथैव यः २, २४
जो विशिष्ट उद्देश्य के बिना वथा ही वनों को काटता है, वह असिपत्र-वन नरक में जाता है-जहाँ वक्षों के पत्ते भी तलवार की तरह से अंग-विच्छेद करने वाले होते हैं।
। घणित कार्यों का परिणाम अन्ततः घणित ही होता है। यह मूल सिद्धान्त है, भारतीय - दर्शन का। श्रमण भगवान् महावीर ने कहा था-"कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ।"
-अपने किए गए निकाचित कर्मों को भोगे बिना कदापि मुक्ति अर्थात् छुटकारा नहीं है। वैदिक ऋषि भी कहते आए हैं"ना भुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" कोटी-कोटी कल्पों के पश्चात् भी बिना भोगे कृत कर्म क्षीण नहीं होते हैं।
क्या ही अच्छा हो, आज का भारतीय जन - समाज अपनी पुरातन संस्कृति के मूर्धन्य ऋषि, मुनियों एवं ज्ञानियों के उपदेशों को जो भूलता जा रहा है, उन्हें पुनः अपनी स्मृति में लाए एवं स्वार्थता से ग्रस्त अन्याय-अत्याचार के दुष्पथ का अन्तर्-निष्ठा के साथ पूर्णतया परित्याग करे। एक अच्छे भद्र समाज की रचना के लिए उक्त उपदेश केवल वचन ही नहीं है, अपितु वचनामृत है। अमृत वह है, जो मतप्राय होते हुए व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, संस्कृति एवं धर्म - परम्पराओं को पुनः प्राणवान बनाता है। मुझ प्रसन्नता होगी, जिज्ञासु अध्येताओं में से कोई भी महानुभाव उक्त निर्दिष्ट वचनपथ पर कुछ दूर तक भी सही रूप से चल सका, तो उसका सामाजिक जीवन मंगलमय होगा। व्यक्ति का मंगल समाज की उदात्त मंगलमय चेतना की सुरक्षा में ही सुरक्षित है, यह बात अहर्निश ध्यान में रखने योग्य है।
चिन्तन के झरोखे से :
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