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विशेष के वात्याचक्र में भ्रान्ति-ग्रस्त हो जाता है, तो उसका सद्असद्-विवेक सर्वथा नष्ट हो खाता है । फलतः तब वह मानवता की सीमा में से निकल कर क्रू र दानवता की सीमा में प्रवेश कर जाता है। आप जानते हैं, अन्ततः दानवता का क्या परिणाम होता है ?
आचार्य उमास्वाति सूत्र शैली के आचार्य हैं। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थ सूत्र में, प्रारम्भ में स्थानांग सूत्र में कहे गए चार हेतूओं को प्रारम्भ के दो हेतुओं में ही समाविष्ट कर दिया है। उनका सूत्र है-"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ।-६, १६."
मर्यादाहीन अतीव आरम्भ एवं अतीव परिग्रह नारकीय आयु के हेतु हैं। पञ्चेन्द्रिय-वध और मांसाहार उक्त दोनों में समाविष्ट हो जाते हैं, यह स्पष्ट है ।।
नरक गति के चार हेतुओं का इतना विस्तृत रूप है कि इसमें चोरी, बलात्कार, मुक्त व्यभिचार, लूट-मार, विवेकहीन शोषण, मिथ्या दोषारोपण, निन्दा, छल-प्रपंच आदि अनेक हेतुओं का भी यथास्थान समावेश हो जाता है। इन सबका भी तीव्र रौद्र रूप से किया गया प्रयोग एवं आचरण नरक की हेतुता में समाहित है।
__कथ्य की सीमा नहीं है, किन्तु कथ्य को अक्षरांकित करने की तो सीमा है। प्राचीन आगम तथा आगमोत्तर साहित्य में नरक गति के दुःखों तथा उसके हेतुओं का वर्णन इतना अधिक है, उसे यहाँ सामूहिक रूप से अक्षरांकित करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है । अतः यत्किंचित् निर्देशन करके लेख दूसरी ओर मोड़ लेरहा है।
_ वैदिक-साहित्य में वेदों के अनन्तर पुराणों का काफी महत्त्व है। लोक जीवन में पुराण ही अधिक प्रचलित रहे हैं। पुराणों की अनेक वार्ताओं से भले ही मैं सहमत नहीं हैं, किन्तु लोक • जीवन के निर्माण में एवं भारतीय - संस्कृति की प्रतिष्ठा में उनका जी अपना एक महत्त्व है, उसे योंही अपदस्थ नहीं किया जा सकता। पुराणों में भी मानव - जाति को पापाचारों से मुक्त रखने की, जो अनेक प्रक्रियाएँ एवं दिशाएँ हैं, उसमें नरक का वर्णन भी अपना एक अलग स्थान रखता है। अधिक विस्तार में तो न जाऊँगा, किन्तु पुराणों के नरक वर्णनों का संक्षेप रूप से उल्लेख अवश्य
ये हैं नरक लोक के यात्री :
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