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का भावात्मक रूप है। इसमें कृत पाप के लिए पश्चाताप का कुछ भी अंश नहीं होता।
२. महापरिग्रह का भाव है-धन, संपत्ति या अन्य किसी वस्तु - विशेष के प्रति पागल हो कर दौड़ना । विवेक की आँखें बंद हो जाती है और मनुष्य धन के लिए कृत्याकृत्य का कुछ भी विचार नहीं रखता है। मर्यादाहीन अतिलोभ एवं अतितृष्णा ही अर्थ हैमहापरिग्रह शब्द विशेषण के रूप में लगे महा शब्द का। ध्यान रखिए यहाँ 'महा' शब्द महत्ता का सूचक नहीं है, अपितु भीषणाति भीषण भयंकरता का सूचक है। महापरिग्रह के उदाहरणों की विश्व में न पहले कोई कमी रही है, न अब है।
३. पञ्चेन्द्रिय वध- प्राणी जगत् में श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियवाले प्राणी सर्वतः विशिष्ट माने जाते हैं। उनकी सुख - दुःख आदि के अनुभव करने की चेतना - शक्ति विशिष्ट होती है। अतः शिकार आदि मनोविनोद के रूप में तथा अन्य किसी बलि प्रदान आदि के प्रयोग में पञ्चेन्द्रिय प्राणी - वध में नरक गति की हेतुता स्वतः समाविष्ट हो जाती है। मनुष्य अपने किसी स्वार्थ विशेष अथवा मनोविनोद आदि के रूप में मर्यादाहीन निर्दयता के साथ पञ्चेन्द्रिय प्राणी का वध करता है । और, उक्त प्रक्रिया में पश्चाताप तो क्या, हर्ष एवं गर्व की अनुभूति करता है, तो ऐसा रूद्रपरिणामी व्यक्ति नरक में नहीं जाएगा, तो और कहाँ जाएगा?
४. कुणिमाहार, मांसाहार का वाचक है । मांसाहार मनुष्य का प्राकृतिक भोजन नहीं है । कुछ स्थानों की परिस्थति विशेषताओं को छोड़कर स्वाद-लोलुपता ही मुख्य हेतु है। मांसाहार के द्वारा मूक पशु - पक्षियों का इतना भयंकर संहार हुआ है कि अनेक प्राणो-शास्त्रियों का मत है कि इस संहार से पशु-पक्षियों की अनेक जातियाँ ही इस धरती पर से नष्ट हो गई हैं। पूर्वकाल के कापालिक परंपरा के तापस, तंत्र-योग के भ्रम में मानव - मांस तक का भक्षण करते रहे हैं । आज कल भी समाचार-पत्रों की सूखियाँ, जो पढ़ने में आती है, तो हमारा रोम - रोम कांप उठता है। अनेक होटलों में मनुष्य-मांस का, अधिकतर छोटे बच्चों के मांस का प्रयोग किया जा रहा है। जब मनुष्य किसी तृष्णा एवं लोलुपता
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चिन्तन के झरोखे से :
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