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________________ वैदिक पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में इस प्रकार के दुःखों का विस्तृत वर्णन है । यह तो रहा संक्षेप में इन दुःखों का वर्णन । किन्तु, सबसे बड़ा प्रश्न है - मनुष्य इतने भयंकर दुःख क्यों पाता है ? ये विष फल तो अपने ही द्वारा बोए गए पापाचार रूप विष वृक्ष के दुष्फल हैं । अतः हमें प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार उन्हीं हेतुओं का वर्णन करना है, जो भोगासक्त मूढ़ प्राणी को नरक - लोक की ओर ढकेलते हैं । नरक के दुःखों का एवं उसके कुछ हेतुओं का वर्णन जैनागम उत्तराध्ययन सूत्र के मृगापुत्त्रीय उन्नीसवें अध्ययन में तथा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में आए हुए निरय अध्ययन में वर्णित है । अन्य अनेक आगमों में भी यत्र तत्र प्रस्तुत विषय की चर्चा है । सभी उद्धरणों को उपस्थित किया जाए, तो लेख एक अच्छी पुस्तक का रूप ले सकता है । किन्तु, हम संक्षेप - रूचि पाठकों की जानकारी के हेतु संक्षेप में ही चर्चा कर लेते हैं । दुःखों का नहीं, दुःखों के हेतुओं का वर्णन ही अधिक श्रेयावह है। क्योंकि कारण के सद्भाव में ही कार्य की निष्पत्ति होती है । कारण हटा दिया जाए तो कार्य अपने आप समाप्त हो ही जाता है । उबलते दूध के नीचे से यदि आग हटा दी जाए, तो दूध स्वतः शीतल होना शुरू हो जाता है । - - - हमारा लक्ष्य पूर्वाचार्यों की दृष्टि के अनुसार मानव - जाति को दुष्वृत्ति से दूर रखना है, पापाचार से मुक्त करना है । साथ ही, पुण्याचार की ओर प्रेरित करना है । अतः प्रस्तुत प्रसंग में नारकीय दुःखों का हेतु वर्णन ही जीवनोपयोगी है, प्रसंगोचित है । Jain Education International स्थानांग सूत्र अभी हमारी आँखों के समक्ष है । चतुर्थ स्थान का चतुर्थ उद्देश्य देखिए - नारकीय आयु-बन्ध के चार कारण हैं१. महारम्भ २. महापरिग्रह ३. पञ्चेन्द्रिय वध ४. कुणिमाहार । १. महारम्भ का अभिप्राय है — ऐसी भयंकर हिंसा के आयोजन, जिसमें अनेक प्राणियों का भीषण संहार होता हो । जहाँ भयंकर हाहाकार एवं रुदन के सिवा अन्य कुछ सुदर्शनीय दृश्य न दिखाई देता हो । स्थूल रूप से कत्तलखाना आदि के उदाहरण पर्याप्त हैं । यह तो एक उदाहरण है । मूल में मनुष्य के तीव्र मर्यादाहीन हिंसा के तीव्र भाव हैं । यह हिसानुबन्धी तीव्र रौद्र ध्यान ये हैं नरक लोक के यात्री 1 For Private & Personal Use Only ८१ www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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