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जैन-समाज के चिन्तन-क्षेत्र में एक चर्चा काफी समय से चल रही है-तथाकथित डोली, जिसका साधुओं द्वारा मुक्त मन से उपयोग किया जा रहा है, वाहन एवं यान है, या नहीं ? अनेक वार सिद्ध किया जा चुका है-डोली नर-वाहन है, नर - यान है। किन्तु ये मां के लाल अब भी अपना वही घिसा-पिटा स्वर अलाप रहे हैं, कि डोली वाहन एवं यान नहीं है। और, अपने इस व्यर्थ के अहंकार की छलना में ये लोग कभी - कभी अर्थहीन जर्जर शब्दों के धागों से बुने छोटे • मोटे लेख कुछ नगण्य पत्रों में छपाते रहते हैं । विचारशील सुधी- जन तो समझ लेते हैं, कि सही वस्तुस्थिति क्या है ? किन्तु साधारण जन, धर्म के नाम पर प्रचारित अपने पाण्डित्य के पीटे गए भग्न वाद्यों के भ्रम में आ जाते हैं और दोनों तरफ से 'अहो रूपं अहो ध्वनि' का घोष गूंजने लगता है। यह मनस्तुष्टि की ऐसी दूषित प्रक्रिया है, जो धर्म और समाज आदि सभी क्षेत्रों में जनता को विभ्रम में डाले हुए है।
मैं अब इस डोली की चर्चा को लम्बा नहीं करना चाहता। अब इस निष्प्राण चर्चा का कुछ अर्थ भी नहीं रहा है। अतः कुछ विशिष्ट प्रमाण उपस्थित कर उक्त चर्चा को एक किनारे ले जा कर छोड़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
जैन - धर्म के सभी तीर्थंकरों की महाभिनिष्क्रमण - यात्राएँ शिविका अर्थात पालकी के द्वारा ही होती रही है। एतदर्थ समवायांग सूत्र आदि आगमों तथा ग्रन्थों का अवलोकन किया जा सकता है । राजवंश के होते हुए भी किसी भी तीर्थंकर ने सर्वोतम एवं सर्वजन वल्लभ महाभिनिष्क्रमण जैसे उत्सव प्रसंग पर गज एवं अश्व आदि की सवारी नहीं की है। इसका अर्थ है-शिविका सर्वश्रेष्ठ वाहन है, यान है । __ज्ञाता सूत्र, १, ३४ में मगध नरेश श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार की दीक्षा में 'पुरिस सहस्सवाहिणि सीयं'----सहस्र - पुरुष - वाहिनी शिविका के प्रयोग का उल्लेख है।
वासुदेव श्री कृष्ण के युग में थावच्चापुत्र की दीक्षा का वर्णन आज भी ज्ञाता सूत्र में उपलब्ध है। वहाँ भी थावच्चा पूत्र की दीक्षा में शिविका (पालको) का प्रयोग भी मेषकुमार के समान हो ७२
चिन्तन के झरोखे से :
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