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डोली यदि सवारी नहीं है :
तो फिर क्या है वह ? एक पुरानी हास्यास्पद, साथ ही बोधप्रद लोक-कथा है, कि. चार सशस्त्र धुड़सवार सैनिक दिल्ली की ओर जा रहे थे। उनके पीछे - पीछे एक जाति विशेष के सज्जन भी अपने गधे पर सवारी किए हुए सैनिक घुड़सवारों के साथ अपने गधे पर चल रहे थे।
एक गांव के पास से गुजरे, तो कुतुहल वश वहाँ उपस्थित ग्रामीणों ने पूछा-"ये सवार कहाँ जा रहे हैं ?"
घडसवार बोलने ही वाले थे, कि गर्दभारोही सज्जन ने झटपट उत्तर दिया- "हम पाँचों सवार दिल्ली जा रहे हैं।"
ग्रामीणों ने पूछा-पाचवा सवार कहाँ है ?"
गर्दभारोही ने कहा--"देख नहीं रहे हो ? पांचवां सवार मैं ही तो हैं।"
इस पर सभी ग्रामीण ठहाका लगाकर हंस पड़े।
आजकल जिधर देखो उधर ही इन्ही पांचवें सवारों की दौड़धूप है। परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र, यहाँ तक कि धर्म के क्षेत्र में भी इनका काफी शोरगुल है । जो - कुछ थोड़ा - बहुत जानते हैं, वे तो चुप रहते हैं, किन्तु ये वे लोग हैं, जिन्हें आगम, दर्शन आदि का कुछ भी अता - पता नहीं है, लेकिन जब देखो, तब व्यर्थ ही अपनी कलम के तथाकथित गर्दभ दौड़ाने लगते हैं। ये महाभारत संग्राम के वे शिखंडी हैं, जो भीष्म पितामह के ऊपर वाणों से प्रहार करते हैं, किन्तु इन बुद्धिमानों को यह पता नहीं कि तुम्हारे इन शक्तिहीन वाणों से भीष्म पितामह न पहले कभी आहत हए हैं, और न कभी भविष्य में होंगे।
डोली यदि सवारी नहीं है : तो फिर क्या है वह ?
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