________________
इसकी श्रेष्ठता भी है। अतः संथारे की, जैसा कि आज-कल कुछ पत्रकार तथा अन्य सज्जन जीवित अग्नि-दाह रूप सती-प्रथा के साथ तुलना करते हैं, वह सर्वथा भ्रान्त है। सती-प्रथा में रागात्मकता है अथवा सामाजिक परम्परा एवं अन्य मानसिक प्रत्याघातों की हेतुता है। अस्तु, स्पष्ट ही दोनों में एक ऐसी विभेद रेखा है, जिसे विचारशील सज्जनों को तटस्थ दृष्टि से अवलोकन करना चाहिए।
मैं समझता हूँ कि मेरे इस वक्तव्य पर से श्री केवल कृष्णजी का तो समाधान हुआ ही होगा, साथ ही अन्य विचारशील सज्जन भी सम्यक - विचार के चिन्तन-पथ पर अग्रसर होकर उक्त प्रश्न से सम्बन्धित सत्य से सहज ही लाभान्वित होंगे।
संयम : खलु जीवनम् : आप जीवन के चाहे जिस किसी क्षेत्र में रम रहे हों, चाहे वह क्षेत्र श्रावक का हो, श्राविका का, साधु का हो, साध्वी का-किन्तु सबके बीच संयम का होना एक आवश्यक एवं अपरिहार्य तत्त्व है । संयम के बिना संतुलन कायम नहीं रह सकता, और संतुलन के बिना सुनियोजित जीवन के अभाव में किसी भी तरह की गति - प्रगति संभव नहीं है। गति-प्रगति के अभाव में जीवन, जीवन नहीं रह जाएगा, वह जिन्दा लाश रह जाएगा। अतः संयम ही जीवन है ।
-उपाध्याय अमरमनि
७०
चन्तन के झरोखे से :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org