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है। भगवान् महावीर ने इसे बाह्य तप कहा है। अन्तरंग तप, सच्चा अनशन और सही अर्थ में संथारा है-क्रोध का उपशमन, अहंकार का विसर्जन, माया, दंभ, छल-कपट का परित्याग, लोभलालच, यश-प्रतिष्ठा की तृष्णा, स्वर्गादि की कामना का परित्याग ।
उक्त भाव को शुद्ध अध्यात्मवादी आचार्य अमृतचन्द्र ने भी निम्नोक्त शब्दों में अभिव्यक्त किया है
''मरणेऽवश्यं भाविनी कषायसल्लेखनातनुकरणमात्रे।
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥" -मरण अवश्यं-भावी है, वह समय आ ही गया है। अतः क्रोध, मान, माया लोभ रूप कषायों को कृश-मंद, मंदतर करने रूप सल्लेखना है । अतः सल्लेखना समाधि-भाव है, रागादि के असद्भाव के कारण आत्म - घात नहीं है।
अतः संथारा एक आध्यात्मिक - साधना है, निरपेक्ष भाव से अपने विशुद्ध रूप में स्थित होने की। इसलिए संथारा आत्महत्या नहीं है और न सिर्फ एक साम्प्रदायिक क्रिया-काण्ड ही है, यह है विशुद्ध दृष्टि संथारे की।
प्रस्तुत चर्चा को समाप्त करते हुए एक बात और भी कह देना चाहता हूँ कि एकमात्र अनशन के होने, न होने पर ही आराधक तथा विराधक की स्थिति नहीं है। कल्पना कीजिए, एक महान् उग्र संयमी साधक हृदय रोग आदि के सहसा आक्रमण से देह-मुक्त हो जाता है, तो उसे क्या समझना चाहिए-'आराधक या विराधक ?' दोषों की आलोचना तो वह प्रातः एवं सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय निरन्तर करता ही रहा है। दिन एवं रात की प्रत्येक क्रिया की समाप्ति पर ज्ञात एवं अज्ञात दोषों के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देता ही रहा है । संयम की शुद्ध-धारा प्रवाहित रही है, किन्तु हृदय - रोग आदि के तत्काल घातक आतंक से यदि अनशन का अवसर न मिले, तो इसमें उसका क्या दोष है तथा शारीरिक दुर्बलता के कारण भी अनशन नहीं हो पाता है, तो इसमें भी क्या विराधकता है ? जैन-धर्म हठ-योग का नहीं, ज्ञानयोग का पक्षधर है। वह देहाश्रित धर्म नहीं, भावाश्रित धर्म है। अतः संथारा भी मूलतः भावाश्रित रूप से ही मान्य है। इसलिए
संथारा विशुद्ध अध्यात्म साधना है :
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