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से अन्त तक अनवरत गतिमान रहनी चाहिए। साधक का मुख्य लक्ष्य है-बाह्य क्रिया - काण्ड एवं रूढ़-परम्पराओं के व्यामोह तथा साम्प्रदायिक पक्षपात तथा यश - अपयश की भावना से ऊपर उठ कर, सत्य - द्रष्टा बन कर अन्तरंग साधना में संलग्न रहना और वीतराग - भाव की ओर बढ़ने का प्रयास करना।
अत: यह कथन गलत है कि संथारा मरने के लिए की जाने वाली आत्म-हत्या है। परन्तु, साधना में संलग्न रहते समय मत्यु आ जाए, तो उसका सहर्ष स्वागत करने को तत्पर रहे। अतः संसार से विदा होते समय साधक के मन में किसी तरह का विषम भाव न हो, किसी के प्रति मन में विरोध एवं घृणा लेकर न जाए, प्रत्युत मन को पूर्णत: निर्मल - स्वच्छ करके सब के प्रति मैत्री भाव लेकर विदा हो।
श्रमण भगवान महावीर का साधक को दिव्य सन्देश है-तुम स्वयं के स्वरूप का सम्बोध प्राप्त करो, अपने आपका निरीक्षण करो और अपने मन में जो राग - द्वष का कचरा आ गया है, उसे सम्यक - आलोचना के द्वारा साफ करके स्वयं को निर्मल - स्वच्छ बनाओ। और, दूसरों के मन को साफ करने का मार्ग बताओ। यह उनकी अपनी इच्छा है कि वे स्वयं को निर्मल करे या न करे । तुम दूसरों के जीवन के अधिकारी नहीं हो, तुम्हारा दायित्व स्वयं को शुद्ध-विशुद्ध बनाने का है। श्रमण भगवान महावीर ने राजगह के पर्वतराज वैभारगिरि को उपत्यका में स्थित गुणशील उपवन की इसी पावन-भूमि पर दिव्य उद्घोष किया था
"जे उवसमइ तस्स आराहणा" -जो स्वयं अपने अन्दर उभर रही कषायों की आग का उपशमन करता है, वैर-विरोध को उपशान्त करता है, राग-द्वेष को क्षय करता है, वही साधक आराधक है, उसकी साधना ही सफल है
"उवसमसारं ख सामण्णं" -क्रोध, मान आदि कषायों को उपशमन करना ही श्रेष्ठ श्रमणता है अर्थात् साधना का सार उपशम-भाव ही है।
इसके अतिरिक्त संथारा और है ही क्या ? समभाव एवं वीतराग - भाव ही संथारा है । अनशन आदि क्रियाएँ तो बाह्य तप
चिन्तन के झरोखे से :
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