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किसी एक को मरना जरूर है । यह कैसी विचित्र बात है, इसका धर्म के साथ कहीं दूर तक भी सम्बन्ध नहीं है ।
अभिप्राय यह है कि बिना ज्ञान के संथारा नहीं करना चाहिए । सर्वप्रथम साधक को समयज्ञ - काल का ज्ञान होना ही चाहिए और उसके बाद बाह्य अनशन स्वीकार करने के लिए अपनी शारीरिक शक्ति का सही परिबोध भी होना चाहिए, जिससे समभाव पूर्वक शुद्ध स्वरूप में स्थित होने का प्रयत्न कर सके ।
पण्डित प्रवर श्री रत्नचन्द्रजी म. ( आगरा - उ. प्र.) बहुत बड़े ज्ञानी थे । ज्योतिष विद्या के वे आचार्य थे । उन्होंने एक माह पूर्व यह बता दिया था कि अमुक दिन मेरी मृत्यु होने वाली है । परन्तु, साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं तपस्वी नहीं हूँ । अतः मैं यह नहीं चाहता कि मैं अपने स्वाध्याय, चिन्तन-मनन को छोड़कर एक माह तक संथारे में पड़ा पड़ा व्यर्थ में समय यापन करू ँ । मैं बाह्य तप से अन्तरंग तप को अधिक महत्त्व देता हूँ । अत: मैं संथारा उसी समय करूँगा, जब मैं देख लूंगा कि मेरे शरीर में इतनी शक्ति है कि बाह्य तप के साथ-साथ अन्तरंग साधना सहजभाव से कर सकूँ । इसलिए उन्होंने अपनी शक्ति के अनुसार चार दिन का संथारा किया
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वास्तव में जैन धर्म मरने को महत्त्व नहीं देता है । परन्तु, जीवन को, वह भी संयमी जीवन को महत्ता देता है । अत: साधक को अपने जीवन की अधिक से अधिक लम्बे काल तक सुरक्षा करनी चाहिए। और, जब यह देखे कि जीर्ण शीर्ण शरीर अपने या समाज के किसी भी कल्याण कार्य के लिए उपयोगी नहीं रहा है, व्यर्थ ही भार रूप हो गया है, अपितु जीवन की व्यर्थ आशा के
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अनर्गल दोषों के कारण शुद्ध आत्म
भाव मलिन हो रहा है, तो
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समाधि - पूर्वक समभाव से शरीर विसर्जन की दिशा में विचार करना चाहिए। भगवान् महावीर ने स्वयं कहा है"लाभन्तरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिणाय मलावधंसी" साधना, केवल बाह्य अनशन में ही सोमित नहीं है । बाह्य
तप भी एक साधन है और वह अन्तिम समय में भी शक्ति के अनुरूप किया जा सकता है । परन्तु, महत्त्व है - समभाव की, वीतरागभाव की साधना का और यह साधना साधक के जीवन में प्रारम्भ
संथारा विशुद्ध अध्यात्म साधना है :
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