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अपयश के आधार
आचार्य भी बाह्य क्रिया - काण्डों को भी यश पर ही तोलते हैं । आचार्यश्री भी सोचने लगे कि यदि शिष्य को पारणा करा दिया, तो लोग क्या कहेंगे ? पहले तो उसे समझाया । जब वह नहीं माना, तो कहा उन्होंने - यदि तुम अब संथारा नहीं चला सकते हो, तो मैं संथारा करता हूँ तुम्हारे स्थान पर । एक को तो प्राणों का बलिदान करना ही होगा, अपने धर्म एवं सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए । और शिष्य के आसन पर संथारा करके गुरुजी बैठ गए । अन्ततः वे दिवंगत भी हो गए । जैन - समाज आदर्श उदाहरण के रूप में इस कथा को बहुत उछालता है, धर्म रक्षा हेतु आचार्यश्री ने अपना बलिदान दे दिया ।
किन्तु, मेरे विचार में उन्होंने जनता के समक्ष गलत आदर्श उपस्थित किया | उन्हें चाहिए था, कि वहाँ पधारते ही सर्व प्रथम वे यह देखते कि शिष्य ने संथारा तो किया है, परन्तु शरीर स्वस्थ हो जाने से अब वह संथारा निभा नहीं सकता और उसके परिणामों की धारा भी विषम होती जा रही है । अतः उन्हें आगम के अनुरूप बाह्य अपयश की भावना से ऊपर उठकर सत्य को जनता के समक्ष रख देना चाहिए था । उन्हें घोषणा करनी चाहिए थी, इसे काल - ज्ञान नहीं था और न साथ में रहने वाले सन्त भी समयज्ञ थे । रोग की उग्रता को देखकर सहसा घबरा गए, और संथारा करा दिया । यह संथारा भावावेश में किया गया है, इसलिए मैं इसे हठात चालू रखने की आज्ञा नहीं देता । अतः इसको पारणा कर लेना चाहिए । सत्य का आधार भी यही था । परन्तु ऐसा कुछ न करके, अपने तथाकथित धर्म एवं साम्प्रदायिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए स्वयं संथारा करके बैठ गए और दिवंगत भी हो गए ।
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ऐसी स्थिति में एक तो साधारण जनता में भ्रम फैला कि मुनिजी का संथारा चल रहा है । साधारण जनता यह नहीं जानती थी कि सन्त के स्थान पर आचार्यश्री ने संथारा कर लिया है । अतः असत्य का प्रचार हुआ और जनता के समक्ष गलत आदर्श भी उपस्थित किया गया- या तो संथारा करने वाला मरे, या उसके स्थान पर दूसरा सन्त मरे । अर्थात् समय के पूर्व बिना इच्छा के
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चिन्तन के झरोखे से :
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