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उसे सूचित कर दे। जैसे भी हो संथारे के पूर्व काल - ज्ञान अवश्य होना चाहिए । यह तो स्वस्थ दशा में किए जाने वाले संथारे का स्वरूप है।
दूसरा रूप यह है कि काल-ज्ञान तो नहीं है, किन्तु कोई भयंकर रोग या उपद्रव की स्थिति हो जाती है । और, साधक समझ लेता है कि अब जीवन को बचाना कठिन है। तब वह सहसा संथारे का पथ अपना लेता है। संथारे के पाठ में स्पष्ट उल्लेख है"सव्व समाहिवतियागारेणं" अर्थात् सब तरह से समाधि बनी रहे, समभाव की धारा टूटने न पाए, तो जीवन-पर्यन्त अनशन है । यदि परिस्थिति बदल गई, अनशन से बीमारी शान्त हो गई, और अब भूख को सहन करने की क्षमता रही नहीं, समभाव एवं समाधि की धारा टूट रही है, मन भोजन के विकल्पों में उलझ रहा है, तो ऐसे समय में "सब समाहिवतियागारेणं" के प्रकाश में साहस के साथ पारणा कर लेना चाहिए । अनशन तो बाह्य तप है, उत्तर गुण है। अन्तरंग तप तो समभाव है, वही मूल गुण है। यदि मूल गुण ही भंग हो रहा है, तो उत्तर गुण का कोई भी मूल्य नहीं रह जाता है। अतः हठपूर्वक प्राणों का त्याग करना संथारा नहीं है, अपितु, स्पष्ट ही एक प्रकार की आत्म - हत्या है । अतः ऐसे समय में आहार कर लेना ही श्रेयस्कर है । भगवान् की आज्ञा भी यही है-समाधि अर्थात् समभाव बना रहे, तो अनशन है, अन्यथा पारणा कर लो। हठ पूर्वक कोई क्रिया करने की आज्ञा नहीं है। हठ-योगी परम्पराओं का गुलाम बन जाता है। यदि अब भोजन कर लेगें, तो लोग क्या कहेंगे ? लोगों से पहले यह सोचो, तुम्हारी अन्तरात्मा क्या कहती है, भगवान् क्या कहते हैं ? तुम्हारे अन्दर साधना का मूल समभाव रहता है या नहीं ? इस सत्य को सामने रख कर ज्ञानपूर्वक क्रिया करना धर्म है, न कि लोगों को दिखाने के लिए या लोग-लज्जा के भय एवं दबाव में क्रिया-काण्ड करना ? वह तो धर्म वहीं, धर्म के नाम पर दिखावा है, पाखण्ड है, दम्भ है, यश-कीर्ति के टुकड़ों को बटोरने का साधन मात्र है, साधाना या संथारा नहीं है।
एक पुरानी घटना है। मध्य-प्रदेश के एक गाँव में एक सन्त बीमार पड़ गए। बीमारी से वे अधिक व्याकुल हो गए। उन्हें
चिन्तन के झरोखे से :
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