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से हटा कर परम - ज्योति परमात्म - भाव के साथ में जोड देना अर्थात् शुद्ध - विशुद्ध आत्म - ज्योति में स्थित हो जाना, योग है। इस दृष्टि से संसार से विदा होते समय अपने आपको परम-ज्योति के साथ जोड़कर समभाव से शरीर का विसर्जन कर देना, संथारा है। कामनाओं से मुक्त होकर निरपेक्ष भाव से समत्व-योग में स्थित रहना ही संथारा है-न इस लोक के सुखों की, यश-प्रतिष्ठा के मिलने की कामना हो और न परलोक में स्वर्ग के सुख एवं ऐश्वर्य प्राप्त करने की कामना हो
"न इहलोगा संसप्पओगे, न परलोगा संसप्पओगे" और, यदि संथारे में पूजा-प्रतिष्ठा मिल रही है, जय-जयकार हो रही है, तो मन में यह कामना भी न जगे कि यह संथारा अधिक लम्बा चले, मैं लम्बे काल तक जीवित रहूँ। और, इसके विपरीत यदि कोई साथी ठीक तरह से सेवा नहीं कर रहा है, लोग भी पूछते नहीं हैं, तो मन में उनके प्रति द्वष भी उत्पन्न न हो--- कैसे लोग हैं कि संथारे में भी कोई पूछता नहीं। इससे तो अच्छा है, मृत्यु जल्दी आ जाए। इस प्रकार न जीवित रहने की कामना करे, और न मरने की
"न जीविया संसप्पओगे, न मरणा संसप्पओगे" संथारे का मूल विशुद्ध रूप समत्व - भाव ही है। अनशन करना अनिवार्य नहीं है। श्रमण भगवान् महावीर ने संथारा अर्थात् अनशन तो किया नहीं। वह ज्योति पुरुष अन्तिम क्षण तक दिव्य-देशना की अमृत - वर्षा करते रहे । जैसे कोई पिता घर से अन्तिम विदाई लेने के समय उसके पास जो सम्पत्ति है, उसे अपने परिवार में बाँट देना चाहता है, वैसे ही महाप्रभु अन्तिम क्षणों में भी ज्ञान के दिव्य - आलोक को जन - जन में फैलाते रहे । इसलिए अन्तिम समय में अनशन करना अनिवार्य नहीं है। आवश्यक हैसमत्व-भाव में रमण करना । यदि किसी की शक्ति हो तो अनशन करे, लेकिन करना उसी को चाहिए, जो समयज्ञ हो अर्थात् जिसे काल-ज्ञान हो। या तो अपने विशिष्ट ज्ञान से स्वयं को बोध हो जाए कि जीवन का अन्तिम समय निकट आ गया, या गुरु आदि विशिष्ट ज्ञान से जानकर उसे सूचित कर दे या कोई दैवी-शक्ति
संथारा विशुक्त अध्यात्म साधाना है।
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