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________________ हों या नीरस - किन्तु वह न मनोज्ञ पदार्थों का राग-भाव से, आसक्ति से भोग करे और न अमनोज्ञ-नीरस आहार का द्वेष भाव से अनिच्छा से भोग करे, प्रत्युत दोनों स्थितियों में सम रहे । समता - भाव से किया गया आहार भी अन्तरंग तप है, निर्जरा का हेतु है । समभाव पूर्वक किया गया आहार अमृत भोजन है । इस दृष्टि से जीवन के अन्तिम समय में अनशन की अपेक्षा दोषों की आलोचना अधिक महत्त्वपूर्ण है । अपने जीवन का सम्यक्रूप से निरीक्षण करके उसे निर्विकार - निर्मल बनाकर, शरीर का परित्याग कर देना ही यथार्थ में संथारा है । अन्य धर्म-परम्पराओं में भी इस तरह का वर्णन मिलता है । भारतीय संस्कृति में, विशेष रूप से वैदिक परम्परा में भी जीवन के चार भाग किए गए हैं। इस सम्बन्ध में महाकवि कालिदास का रघुवंशी राजाओं के सम्बन्ध में एक श्लोक है “शैशवेभ्यस्त विद्यानां यौवने वार्धके मुनिवृत्तिनां, योगेनान्ते विषयैषिनाम् ॥ तनुत्यजाम् ॥” - शैशव काल में अर्थात् किशोर अवस्था में २५ वर्ष तक विद्या का अभ्यास करना है, फिर यौवन काल में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना है । दाम्पत्य-जीवन के दायित्व के साथ समाज, देश एवं धर्म के दायित्व का भी पालन करना है । परन्तु, पूरा जीवन भोगों में ही नहीं बीता देना है, प्रत्युत ज्यों ही वृद्धावस्था में प्रवेश करे, त्यों ही मुनि-वृत्ति को स्वीकार कर ले । इधर उधर के रागद्वेषात्मक विकल्पों एवं वासानाओं में उलझी मन की वृत्तियों का निग्रह कर लेना ही चारित है । श्रमण भगवान् महावीर ने भी कहा है - "चारितं निगिण्हाइ" अर्थात् अपने मनोविकारों को नियंत्रित करना ही चारित्र है । महर्षि पतञ्जलि के शब्दों में "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" अर्थात् चित्त वृत्ति का निरोध करना योग है । इसलिए कहा गया "योगेनान्ते" अर्थात् अन्त में योग के द्वारा चित्त वृत्तियों का निरोध करके तन का त्याग कर दे । *****"] चित्त वृत्तियों का निरोध करना, मन, वाणी एवं काया की वृत्तियों को समेट कर स्व-स्वरूप में स्थित होना योग है । और, योग का दूसरा अर्थ है - जोड़ना । अपनी वृत्तियों को इतस्ततः ६२ चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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