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________________ है, दूसरे को नहीं। इस सैद्धान्तिक सत्य को विज्ञान या अन्य कोई चन्नौती नहीं दे सका है। कोई भी शक्ति इस सत्य से इन्कार नहीं कर सकती और न कर सकेगी; क्योंकि यह अनादि - अनन्त काल का सत्य है। हाँ तो, अगर ये इन्द्रियाँ ही आत्मा होती यानी द्रष्टा होती और निर्णय करने की समग्र क्षमता उनकी अपनी ही होती, तो प्रश्न उठता है कि उनके नष्ट हो जाने के बाद भी जो स्मृतियाँ बनी हुई हैं कि मैंने यह चीज देखी थी, ऐसा सुना था, ऐसा सूघा था, ऐसा स्पर्श किया था, वहाँ मैंने ऐसा भोजन किया था, ये स्मतियाँ किसको आ रही हैं ? स्पष्ट है कि आत्मा को ही आ रही हैं ? जो शरीर एवं इन्द्रियों से पृथक् उनका सही ज्ञाता द्रष्टा था । तथ्य यह निकला कि वह अनुभूति करने वाला कोई और था, ये इन्द्रियां नहीं। यह अनुभव ये इन्द्रियाँ खुद - व - खुद नहीं कर सकतीं । ये तो एक जरिया मात्र बनती हैं, एक माध्यम या मीडियम बनती हैं । पर वह असल द्रष्टा, मूल प्रत्यक्षका कोई और है, जिसे आँख, कान, आदि इन्द्रियाँ न होने पर भी उन वस्तुओं की स्मृति आती है। अलग-अलग इन्द्रियों से ज्ञान करने वाली आत्मा है : एक बात और है, अलग-अलग इन्द्रियों से अलग-अलग ज्ञान होता है, तो उसका जमा भी अलग - अलग होना चाहिए। लेकिन सारी इन्द्रियों से अलग-अलग ज्ञान होने पर भी मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने चखा, यह सारा ज्ञान हमें एक जगह केन्द्र में मालूम पड़ता है, अलग अलग नहीं। यानी ज्ञान का केन्द्र एक ही जगह जान पड़ता है। . एक रूपक से इसे समझा दूं। कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति किसी बहत ऊँचे महल में रहता है। उसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण–चारों दिशाओं में दरवाजे हैं, खिड़कियाँ है, और वे सब खुले हुए हैं। उक्त महल का निवासी कभी पूर्व की खिडकी से देखता है, कभी पश्चिम के झरोखे से, कभी दक्षिण की खिड़की से, तो कभी उत्तर की खिड़की से देखता है । यानी अलग - अलग खिड़कियाँ खोल कर वह पूर्वादि दिशाओं के अलग - अलग दृश्य सम्यक्त्व का यथार्थ-दर्शन : ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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