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स्पर्श करने का ज्ञान इन्द्रियों से होता है, इसलिए कुछ दार्शनिक कह देते हैं कि प्रत्यक्ष-ज्ञान करने वाली इन्द्रियों को ज्ञानवान न . मान कर, प्रत्यक्ष में नजर न आने वाली परोक्ष-आत्मा को ज्ञानकान मानना, यथार्थ नहीं है।
किन्तु एक तर्क है, उस पर अगर हम गहराई से विचार करें, तो हमारे सामने वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाएगी। मान लो, किसी ने आँखों से (जो उस समय उसके थीं) दिल्ली देखी अथवा अमुक किसी वस्तु को देखा। मगर कुछ समय के पश्चात ही उसके नेत्रों की ज्योति चली गई, किसी कारण से। वे आंखें, जिन्होंने दिल्ली देखी थी, अब तो रही नहीं। परन्तु, वह जो अनुभव किया हुआ है कि दिल्ली ऐसी थी, उस अनुभव की स्मृति तो विद्यमान रहती ही है। प्रश्न है, जिसे हम स्मृति या याद कहते हैं, वह जिसे आ रही है-वह कौन है ? अगर इन्द्रियां ही ज्ञानवान या आत्मा हैं, तब तो जिन आँखों ने उन दृश्यों को देखा था, वे तो अब रही नहीं; ऐसी स्थिति में जो यह स्मृति आ रही है, वह किसको और कैसे आ रही है ? क्योंकि पूर्वोक्त तर्क के अनुसार तो जिसने देखा है, उसी को देखने की स्मृति होनी चाहिए। स्मृति अनुभव - मूलक होती है। जिसे अनुभव हुआ है, उसी को उसकी स्मृति होती है, दूसरे को नहीं। ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप देखें, और मुझे डस दृश्य या पदार्थ की स्मृति हो जाए। क्या कभी ऐसा हो सकता है कि देखे कोई और, और उस देखे हुए की स्मृति किसी और को आए; सुने कोई और, तथा उस सुने हुए की याद किसी और को आए; नाक से फूल किसी और ने सूघा और उस सुगन्ध की याद किसी दूसरे को आए ? लड्डू, पेड़े आदि का स्वाद लिया किसी अन्य ने, किन्तु उस स्वाद की स्मृति किसी और को आने लगे ?
मतलब यह है कि चाहे हजारों-लाखों वर्ष बीत जाएँ, तो भी तर्कशास्त्र से निर्णीत यह अनुभव मूलक स्मृति का सिद्धान्त स्थिर रहेगा। भौतिक विज्ञान ने भले ही आज हमारी अन्य अनेक मान्यताओं को धक्का दे दिया हो, बदल दिया हो, परन्तु जहाँ तक अनुभवमूलक स्मृति का प्रश्न है, यह सत्य आज भी अकाट्य व स्थिर है कि जो देखता है, जो अनुभव करता है, उसी को स्मृति होती
चिन्तन के झरोखे से
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