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सम्यक्त्व का यथार्थ दर्शन
साधना के अनेक रूप :
विश्व में धर्म परम्पराएँ एवं उनकी अपनी अपनी साधनाएँ, इतने अधिक रूप में हैं कि उनकी कोई एक निश्चित परिगणना कर लेना सहज नहीं है । अन्य धर्म परम्पराओं की बात हम एक ओर छोड़ भी दें । जैन धर्म को ही लीजिए - बाह्य रूप में देखते हैं, तो उसमें भी कोई एक रूप नहीं है । उसमें भी अनेक शाखाएँ हैं, प्रति - शाखाएँ हैं । आप जानते हैं - दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि शाखाएँ किस रूप में विस्तृत हैं ? उक्त शाखाओं में भी अन्य अनेक प्रतिशाखाएं भी हैं और उनके आचारविचार अनेक रूपों में विभाजित हैं । यह वैविध्य इस प्रकार सघन और विस्तृत हो गया है कि उसने एक विशाल जंगल का रूप ले लिया है । समय समय पर इनमें परस्पर टकराव भी होता रहता है । यह टकराव कभी नग्नता का होता है, कभी वह वस्त्र का । यह तो मैंने केवल दो रूप उदाहरण के रूप में उपस्थित किए हैं । इनके अतिरिक्त प्रतिमा-पूजन आदि के विधि - निषेध, पूजा की परस्पर विरुद्ध पद्धतियाँ एवं दान-दया आदि के ऐसे विचित्र मतभेद हैं, कि कोई भी मनीषी आश्चर्यान्वित हुए बिना नहीं रह सकता । यदि यही धर्म-परम्पराओं के आचार-विचार मोक्ष प्राप्ति के अंग हैं, तो फिर मोक्षमार्ग की कोई एक दिशा नहीं हो सकती । और, जब एक दिशा नहीं होती है, तो निर्धारित मूलः लक्ष्य तक कोई कैसे पहुँच सकता है ? अतः स्पष्ट है, कि उक्त विभिन्नताओं में भी कोई एक ऐसी अभिन्नता है, जो धर्म का मूल केन्द्र है । बाह्य साधना मुक्ति का मुख्य हेतु नहीं :
धारण
अतः प्रस्तुत प्रसंग पर एक बात मुझे कहनी है । वह यह कि साधना का जो यह प्रवाह जीवन में प्रवाहित होता नज़र आता है,
सम्यक्त्व का यथार्थ दर्शन ।
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