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की तरफ भटकाए या फिर आपको उसी पद पर ले जा कर उसी संसार में भटकाए ।
देवगति से सीधे मुक्ति नहीं :
यही कारण है कि जैन - सिद्धान्त के अनुसार देवगति से सीधे कोई मुक्ति में नहीं जा सकता । आम लोगों की ऐसी धारणा है कि छब्बीसवें देवलोक से तो मुक्ति निकट ही है । २६वें देवलोक के देव तो सीधे ही वहाँ से मुक्ति में चले जाएँगे, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है । मुक्ति के लिए मनुष्य गति में आना ही पड़ेगा । मनुष्य जन्म की अपेक्षा साधारण जनता देव-जन्म को उत्कृष्ट मानती है, पर ऐसा मानना यथार्थ नहीं है । चूंकि देवलोक में मन की इच्छाओं, राग व वासनाओं को तोड़ा नहीं जा सकता, इस कारण उन्हें तोड़ने के लिए मनुष्य गति में आना जरूरी है । और, मनुष्य गति में ही उन्हें तोड़ कर मुक्ति में पहुँचा जा सकता है ।
धर्म का निर्धूम दीप आत्मा में जलाओ :
इस दृष्टि से धर्मक्रिया या व्रताचरण करते समय साधक को भौतिक ऐश्वर्य या कामनाओं को कतई स्थान नहीं देना चाहिए । उनके न मिलने या मिलने की सम्भावना होने पर भी उनसे पीठ फेर कर ठेलते जाने से वे सब तुच्छ होते जाएँगे । आचार्यों ने इस दिशा में सुन्दर संकेत किया है कि जब साधक अपनी अन्तरात्मा में धर्म के निर्मल भाव जगा लेगा, तब उसे संसार के भौतिक पदार्थ या ऐश्वर्य नितान्त तुच्छ जान पड़ेंगे। इस अद्भुत धर्म-कला को प्राप्त करने के लिए आपको किसी भौतिक साधन, धन-वैभव या ऐश्वर्यं की जरूरत नहीं पड़ेगी। जरूरत है, एकमात्र धर्म का निर्धू म अखण्ड दीप जलाने की, जिसके लिए न बाती चाहिए. न तेल, न दियासलाई और न मिट्टी या स्वर्ण का दीया ही । क्योंकि मिट्टी आदि के दीये से ज्योति जरूर होगी, लेकिन उसमें से निकलेगा धुंआ हो, जिससे कालिख पुत जाएगी। जबकि आत्मा में धर्म दीपक जलने से प्रकाश-ही-प्रकाश होगा । उसमें से वासना
कामना का
आ नहीं निकलेगा, वह कभी बुझेगा भी नहीं । अतः आत्मा में धर्म का निर्धूम दीप जलाओ, इसी से कल्याण होगा ।
मई १९७४
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चिन्तन के झरोखे से :
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