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और तप को है । वहो सामायिक, व्रताचरण, प्रत्याख्यान आदि की क्रियाएँ धर्म की हैं, और ये ही सब क्रियाएँ पुण्य की हैं। मतलब यह है कि जितनी भी बाह्य क्रियाएँ हैं, वे धर्म और पुण्य की एकसी हैं । फर्क केवल भावना का है । बाह्य क्रियाएं या साधनाएँ करते - करते अगर आत्मा निष्काम होती जा रही है, अगर उसमें वीतरागभाव जागृत हो रहे हैं, तो जो भी क्रिया या साधना साधक कर रहा है, उसके पीछे संसार की कोई भी कामना या अन्य कोई सूक्ष्म वासना उसके मन में नहीं रह गई है, निष्कामभाव से सभी क्रियाएँ या साधनाएँ चल रही हैं, तो वे सब धर्म के दायरे में चली जाएँगी, उन साधनाओं या क्रियाओं से कर्म-बन्धन टूटेगा, निर्जरा होगी, वे मुक्ति का कारण बनेगी। परन्तु जहाँ किसी भी पवित्र धर्मकरणी या बाह्य क्रिया या साधना के साथ संसार की कोई लौकिक कामना है, अहंभावना है, चाहे वह सूक्ष्मरूप से ही क्यों न हो, उसको ठीक तरह से साफ नहीं किया गया है, तो वह जो रागादि विकार का अंश है, वह पुण्य बनेगा । निष्कर्ष यह है कि यदि आप दान, शील, तप और व्रत का आचरण तथा धार्मिक क्रियाकाण्ड आदि किसी कामना, इच्छा, तमन्ना की दृष्टि से नहीं, किन्तु निष्कामभाव से करते हैं, आपके भीतर एक ही लक्ष्य हैइस आत्मा में परमात्मशक्ति जगाएँ, आत्मशुद्धि द्वारा आत्मकल्याण करें, और कोई भौतिक चीज आपके मन के किसी कोने में नहीं है, तो वह आचरण या क्रिया काण्ड धर्म का रूप लेगा, वह आपके लिए बन्धन से मुक्ति का कारण बनेगा । आप संसार के बन्धनों से मुक्त हो कर एक दिन परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेंगे । किन्तु अगर आपके मन में इन्हीं दानादि के आचरणों या क्रियाकण्डों के पीछे किसी अंश में राग पड़ा है, कोई इच्छा या तमन्ना आपके मन के किसी कोने में पड़ी है, तो वे सब धर्म के अंश न बन कर, पुण्य के अंश बनेंगे । पुण्य का अंश बनने का अर्थ यह है कि वह क्रिया या दान, शील, तप आदि का आचरण हमें भौतिक ऐश्वर्य की ओर ले जाएगा । फिर चाहे वह स्वर्ग में ले जाए, चक्रवर्ती पद पर ले जाए, इन्द्रासन पर ले जाए, चाहे और किसी पद पर ले जाए. मगर वह पद शुद्ध नहीं होगा, वह निर्मल - निष्कलंक नहीं होगा, उसके अन्दर मैल होगा । संभव है, वह मैल आपको एक दिन पाप
पुण्य और धर्म की गुत्थी :
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