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________________ घी अथवा दूध सबको जलाने वाला है ? ऐसा तो नहीं है । तब तत्त्व-दृष्टि से कहा जाता है कि वह व्यक्ति गर्म घी या गर्म दूध से जल गया। इसका मतलब यह हुआ कि घी या दूध जलाता तो नहीं है, इन दोनों का जलाने का स्वभाव भी नहीं है, बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि घी या दूध के अन्दर जो अग्नि-तत्त्व समा गया था, आम की जो गर्मी उनमें प्रविष्ट हो गई थी, उसीने ही जलाया। घी या दूध नहीं जलाता, लेकिन उसके अन्दर रही हुई या घुसी हुई अग्नि जलाती है। यह तो उपचार से कहा गया है कि 'घी या दूध से वह जल गया। इसी प्रकार 'सरागसंयम से देवगति होती है' इस वाक्य में भी समझ लेना चाहिए कि संयम से देवगति में कोई नहीं पहुँचता, लेकिन संयम के अन्दर जो राग होता है, उससे पहँचता है। यह वाक्य भी उपचार-वचन है। निष्कर्ष यह निकला कि संयम में जो रागभाव घुस गया है, जो कामनाएँ, भौतिक वासनाएँ प्रविष्ट हो गई हैं, संयम - साधना करते समय साधक जिस राग को तोड़ नहीं पाया है, उसी के कारण वह स्वर्ग में पहुँचता है । जबकि वह राग संयम के साथ रहने के कारण अशुभ तो नहीं रहा, शुभ हो गया। लेकिन बन्धनकारक वस्तु जो है, वह राग ही है। इसके विपरीत यदि हम यों कह दें कि संयम से स्वर्ग मिलता है, तो सारा सिद्धान्त उलटा हो जाएगा। फिर तो संयमपालन से कदापि मूक्ति नहीं मिल सकेगी। इसलिए यह तो निश्चित है कि संयम से कभी स्वर्ग नहीं मिल सकता है, वह मिलता है-संयम के साथ-साथ संलग्न लिपटे हुए राग से। अगर आप इस विचार को ध्यान में लाएँगे तो, हमारा आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टिकोण बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। धर्म और पुण्य का अन्तर : जैनधर्म की इस अद्भुत चिन्तनप्रणाली को ठीक से समझ लें, तो आपको धर्म और पुण्य का अन्तर स्पष्टतया समझ में आ जाएगा। बाहर की जितनी भी क्रियाएँ हैं, उनमें धर्म और पूण्य में कोई अन्तर नहीं है । स्थूल-दृष्टि वाले को धर्म की क्रियाएँ और पुण्य की क्रियाएँ अलग-अगल लगती हैं, लेकिन वे अलग - अलग हैं नहीं । वही क्रिया दान की है, वही शील की है, वही त्याग की है चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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