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________________ उससे पहले एक और भूमिका है, जब तक वह भूमिका प्राप्त नहीं होती, तब तक साधक को आगे की भूमिकाएँ प्राप्त नहीं होती। अगर प्राप्त भी हो जाती हैं, तो वे केवल बाहर में प्राप्त होती हैं, अन्दर में नहीं पहुँच पातीं। इसी दृष्टिकोण को भगवान् महावीर ने स्पष्ट किया है- 'जो साधना बाहर में, केवल बाहर में रह जाती है, वह शरीर का बाह्य माध्यम लेकर चलती है, फलतः वह बाहर में केवल दिखावे मात्र की वस्तु रह जाती है। जब तक वह अन्तरंग आत्मा का स्पर्श नहीं कर पातो, तब तक वह मुक्ति का हेत, नहीं बनती। हमारी आत्मा को वह कर्म-बन्धन से मुक्त - स्वतन्त्र नहीं बना पाती, बल्कि वह एक प्रकार से संसार की गलियों में घूमने का रास्ता बन जाती है । यह दूसरी बात है, कि वह गली चाहे स्वर्ग की गली हो, चाहे नरक की गली हो। आखिर ये दोनों संसार की ही गलियाँ हैं, साधक इनमें फंस कर वैसे ही अवरुद्ध हो जाता है, जैसे कि पंकमग्न गजराज । इनसे साधना का मुख्य लक्ष्य सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो सकता। भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि साधना के अन्तरंग स्पर्श में बाधक क्या है ? उन्होंने कहा कि- अनन्त-अनन्त काल से यह आत्मा इस मिथ्यात्व और अज्ञान के अन्धकार में भटक रहा है, इसे दिव्य - प्रकाश की किरण प्राप्त नहीं हुई, वह शुद्ध सत्य-ज्योति का दर्शन नहीं कर सका। अनन्त बार नरकों में चक्कर काट आया तो क्या, देवलोक में भी घूम आया तो क्या, मनुष्य बन कर भी जीवन गुजार दिया तो क्या, और बाहर के अमुक क्रियाकाण्ड भी पालन किये तो क्या ? अन्दर का ताला बन्द रहता है, विवेक का प्रकाश बुझा रहता है, तो कुछ नहीं हो पाता है। अस्तु, अनेक प्रकार की बाह्य साधनाओं में घूमने के बाद जब साधक अंतरात्मा में प्रवेश करता है, अन्दर का ताला खोल लेता है और अन्दर की बन्द खिड़कियों को खोल कर अन्तरंग में प्रवेश कर शुद्ध आत्म - ज्योति के दर्शन करता है, तब उसे 'स्व' का पता लगता है कि 'मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ ?' उस वक्त वह सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्-ज्ञान की दशा में पहुँचता है। अन्तरंग-प्रवेश में बाधक : विकल्प : प्रश्न होता है कि इस 'स्व' का पता लगाने में, सम्यक - दर्शन होने में बाधक तत्त्व कौन - कौन से हैं ? एक तरफ हम मिट्टी के ५० चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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