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प्राप्त हो जाने पर अमुकं देवलोक में तथा सम्यक्चारित का पालन करने पर अमुक देवलोक में जाएगा । सिद्धान्त की दृष्टि से यह बात गलत है । सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय जो आत्मा के निज गुण हैं, वे अमुक-अमुक बन्धनों से मुक्त होने पर प्राप्त हुए हैं। मिथ्यात्व का बन्धन, जो आत्मा पर पड़ा था, उसे तोड़ कर सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ । मिथ्या ज्ञान के बन्धन को तोड़कर सम्यग्ज्ञान मिला । इसी प्रकार मोह का जो बन्धन आत्मा पर पड़ा हुआ था, उसे तोड़ा तो चारित्र प्राप्त हुआ । क्रोध से क्षमा में आ गए; अभिमान से नम्रता में आ गए; लोभ से सन्तोष में आए; हिंसा से अहिंसा में आ गए, सांसारिक मूर्च्छा - आसक्ति से अनासक्ति में आ गए यह सब चारित्र है, जो बन्धनों से मुक्त होने पर प्राप्त होता है ।
अगर सम्यग्दर्शन आदि साधक को दुबारा बन्धनों में डाल दें, स्वर्ग के अमुक बन्धनों में डालते फिरें, साधक के अन्दर राग-भाव पैदा कर दें, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वीतरागता ने राग पैदा किया, निष्कामता ने सकाम-वृत्ति पैदा कर दी। इसी दृष्टि से आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है
"येनांशेन हि ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।"
अर्थात्- 'जितने अंश में जिस आत्मा के अन्दर ज्ञान की ज्योति जल रही है, उतने अंश में उस आत्मा में बन्धन नहीं हैं, लेकिन जितने अंश में ज्ञान के साथ राग-भाव चल रहा है, उतने अंश में उस आत्मा में बन्धन हैं ।'
यही बात सम्यक् - दर्शन के लिए कहीं गई, कि जितने अंश में आत्मा में सम्यक् - दर्शन है, शुद्ध आत्मस्वरूप का भाव है, आत्मज्योति प्रदीप्त है, वहाँ तक आत्मा में कोई बन्धन नहीं है, लेकिन सम्यक - दर्शन के साथ-साथ जितने अंशों में आत्मा में राग हैं, वह राग ही आत्मा के बन्धन का हेतु बनता है। इसी प्रकार चारित्र के सम्बन्ध में उन्होंने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है
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"येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।"
जितने जितने अंश में आत्मा में अनासक्तिभाव है, निष्कामता है, उतने
पुण्य और धर्म की गुत्थी :
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चारित्र- वीतरागभाव है, उतने अंश में बन्धन नहीं
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