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सात कर्म तो जन्म-जन्मान्तर के इकट्ठे हो सकते हैं, लेकिन आयुकर्म जन्म - जन्मान्तर से बांध कर नहीं रखा जाता । यह एक सिद्धान्त-सिद्ध बात है । आयुकर्म ऐसे नहीं होते कि उन्हें हम एक के बाद एक जन्म में भोगते चले जाएँ। इसलिए यह जो समाधान किया गया था, कि सातावेदनीय आदि जो कर्म शेष रह गए, उन्हें भोगने के लिए ही साधक देवलोक में जाते हैं, यह बात सैद्धान्तिक दष्टि से पूर्ण रूप से घटित नहीं होती, क्योंकि आयुकर्म पहले का कोई है नहीं, जिसको भोगने के लिए स्वर्ग में जाया जाए।
इसी प्रश्न को समाधान के लिए जब भगवान महावीर के सामने रखा गया, तो उन्होंने यों समाधान किया कि साधक चलता तो मुक्ति के लिए ही है, उसका लक्ष्य तो मुक्ति ही है, लेकिन वह आत्म-भाव में सतत रह नहीं सकता। इसलिए जितने अंश में वह आत्म-भाव में नहीं रहता, उतने अंशों में रागभाव के कारण उसे स्वर्ग मिलता है। आत्म - भाव में लीन रहना क्या है ? इसका समाधान भी उन्होंने कर दिया कि किसी भी प्रकार की कामना, वासना या बाहर के भौतिक जगत् की किसी चीज के चक्कर में उसका मन न पड़े। इस प्रकार की निष्काम-वृत्ति ही मुक्ति का हेतु है। जब तक साधक आत्म-भाव में लीन रहता है, तब तक समझो कि वह मुक्ति की ओर चल रहा है, निरन्तर अपने आपको बन्धन से मुक्त करता चला जा रहा है। लेकिन, जब साधक आत्म-भाव में नहीं रहता, किसी-न-किसी प्रकार की कामना, सांसारिक वृत्ति या कोई-न-कोई राग उसके अन्दर पैदा हो जाता है, तो वह राग, चूंकि संयमी साधु के जीवन में अप्रशस्त (अशुभ) नहीं होता, प्रशस्त होता है; जो उसे स्वर्ग में ले जाता है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि मुक्ति के हेतु अलग हैं और स्वर्ग-संसार के हेतु अलग हैं। इस समाधान से धर्म और पुण्य का अन्तर स्पष्ट समझ लेना चाहिए। आत्मा के निज गुणों के कारण बन्धन क्यों ?
इसी बात का अन्य आचार्यों ने बहत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है। समयक-दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक- चारित्र-ये तीनों आत्मा के निज गुण हैं। लेकिन, यह कहा जाता है कि जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाएगा, वह अमुक देवलोक में, सम्यग्ज्ञान
चिन्तन के झरोखे से!
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