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ऐश्वयं और धन की कामना का त्याग किया, तो फिर बाद में धन की कामना कहाँ से पैदा होगी? और शरीर की वासनाओं का त्याग किया, तो बाद में शरीर की वासनाएँ कहाँ से जन्म ले लेंगी? यह तो उलटी गंगा बह रही है कि साधना की विनय के लिए, और पैदा होने लगे अभिमान; साधना की संतोष के लिए, और पैदा होने लगे लोभ । धर्म में से अगर ये चीजें जन्म लेती हैं, तो फिर धर्म किया ही क्यों ? यह तो वैसी ही बात हुई, कि चले थे हिमालय की यात्रा करने और पहुंच गए समुद्र के तट पर। यानी हम चले थे, सांसारिक वासनाओं से मुक्ति के लिए, वीतरागता, त्याग और वैराग्य के लिए, लेकिन पहुँच गए संसार की वासनाओं के केन्द्र में, संसार के धन, सम्पत्ति और ऐश्वर्य के अम्बार में । संसार के भोगों के चक्कर में और भी अधिक फंस गए। मगर धर्म का यह जो रूप है, वह यथार्थ नहीं है। धर्माचरण के प्रयोजन पर श्रमण भगवान् महावीर ने तथा हमारे प्राचीन आचार्यों ने बहुत ही उत्तम विचार प्रस्तुत किए हैं। धर्म से देवलोक पाने का समाधान :
आचार्य गणधर सूधर्मा ने कहा है कि तुगिया नगरी में एक बार कुछ श्रावकों में एक तत्त्व - चर्चा छिड़ गई, कि साधु और श्रावक मर कर देवलोक में क्यों जाते हैं ? इस पर बहस चल पडी कि साधु और श्रावक दोनों चले तो थे मुक्ति के लिए और पहंच गए देवलोक में, ऐसा क्यों होता है ? इस चर्चा में वे काफी उलझ गए। उस समय भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के कुछ साधू उस नगरी में आए हुए थे, श्रावकों ने उनके सामने यह प्रश्न रखा, तो उनमें से कुछ ने समाधान करते हुए कहा कि-"पूर्व जन्म के जो कर्म भोगने बाकी रह जाते हैं, उन्हें भोगने के लिए उन्हें मर कर देवलोक में जाना पड़ता है। नहीं तो, देवलोक में जाने का कोई मतलब नहीं है, साधक के लिए।" बात तो ठीक है कि पहले जन्म के बचे हुए कर्मों को भोगने के लिए साधक को स्वर्ग की यात्रा करनी पड़ती है। मगर, एक बात जरूर है कि देवलोक की जो आयु है, वह जन्म - जन्मान्तर की बंधी हुई नहीं होती है। पहले जन्म की बंधी हुई आयु तो इस जन्म में भोग ली। बाकी के दूसरे
पुण्य और धर्म की गुत्थी :
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