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उदाहरण देकर इसे स्पष्ट कर दूं। एक गृहस्थ है, उसने गृहस्थधर्म में बह्मचर्य का पालन करना शुरू किया। बाद में वह साधु बन गया और अखंड ब्रह्मचार्य का पालन करने लगा। यह धर्म हआ। शास्त्रों के वर्णन के अनुसार वह साधु मर कर स्वर्ग -देवलोक में गया। वहाँ उसे हजारों - लाखों अप्सराएँ, देवांगनाएं मिलीं। मैं पूछता हूँ आपसे, ब्रह्मचर्य - धर्म के पालन के कारण उस साधु को यह संसार - वर्धक अब्रह्मचर्य - मूलक फल कैसे मिला ? ब्रह्मचर्य का मतलब है-शरीर सौन्दर्य की आसक्ति, मन को कामुकता, वासना और इन्द्रिय विकारों का त्याग कर के परब्रह्म - परमात्म-भाव में रमण करना, शुद्ध आत्म-स्वरूप में लीन होना । इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य शुद्ध आत्म - परिणाम है, उसमें इच्छा, वासना या कामना कुछ भी नहीं है, शुद्ध निष्काम-भाव - आत्मभाव है एक अलौकिक प्रकार का। ऐसी स्थिति में तथाकथित शास्त्र, पुराण या आपकी प्रचलित मान्यता के अनुसार उक्त साधु को ब्रह्मचर्यधर्म के पालन के कारण देवलोक मिला, जहाँ उसे हजारों अप्सराएँ मिलीं, ऐसा कहना मेरी दृष्टि में धर्म का दिवालियापन है । यानी निष्काम-भावना के प्रतीक, शुद्ध आत्म-भाव के द्योतक ब्रह्मचर्य से ये स्वर्ग की कामनाएँ, वासनाएं, इच्छाएँ कैसे फूट पड़ी ? प्रत्युत ब्रह्मचर्य से तो इन वासनाओं-कामनाओं से मुक्त होने के लिए धर्म की उपासना कैसे की जाएगी? क्योंकि आप साधक धर्म से संसार की वासनाओं से मुक्ति का काम करना चाहें, परन्तु वह फँसाए आप को बन्धन और वासनाओं के जाल में, तो भला धर्म-साधना कोई क्यों करेगा? यह कैसी धर्म-साधना हुई कि आपने यहाँ एक पत्नी छोड़ी, तो वहाँ अगले जन्म में हजारों पत्नियाँ मिल गई ! ऐसे धर्म का आचरण कोई क्यों करेगा?
विचार कीजिए, साधु ने पूर्ण रूप से परिग्रह का त्याग किया, लेकिन दूसरी तरफ आप कहते हैं, उस साधु को अगले जन्मों में चक्रवर्ती या राजा का पद मिलेगा या उसे इन्द्रासन पर बिठाया जाएगा और इतना वैभव, ऐश्वर्य, खजाना या सोना मिलेगा, इतने रत्न और महल मिलेंगे। यदि ऐसा है, तो मैं कहूँगा - धर्म अपरिग्रह-वृत्ति में है। इसी अपरिग्रह-वृत्ति के रूप में संसार के वैभव,
चिन्तन के झरोखे से :
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