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________________ हैं कि धर्म आत्मा को बन्धन से मुक्त करता है । वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि विकारों से हमें मुक्ति दिलाता है । यानी वह आपकी आत्मा पर लगे हुए कर्म के मैल को साफ करके आपकी आत्मा का शुद्ध रूप जागृत करता है । तो क्या वही धर्म आत्मा को कर्म - बन्धन में बांधेगा ? उसे अशुद्ध बनाने या कर्मबन्धन के फल स्वरूप प्राप्त होने वाले स्वर्ग को दिलाने का काम भी करेगा ? यानी जो धम एक तरफ मुक्ति का काम करता है, आपको बन्धनमुक्त करता है, आपके स्वरूप को विकृत करने वाले राग-द्वेष, काम-क्रोध, विकार वासनाओं, कामनाओं आदि से आपको मुक्त, निष्काम और वीतरागी बनाता है, दूसरी तरफ वही धर्म आपको स्वर्ग भी दे, धन भी दे, सुन्दर शरीर, सुन्दर रूप, सुन्दर पत्नी या पति, शारीरिक सुख, अच्छे मित्र और ऐश्वर्य भी दे, आप जिधर भी जाएँ, आपको जय जयकार भी दिलाए ! ये दोनों विरोधी चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं ? आपको मुक्त भी बनाए और दूसरी ओर वह आपको डाले । क्योंकि एक ही कारण से दो विरोधी कार्य कैसे हो सकते हैं ? यदि वह बन्धन का कारण है, तो बन्धन ही होना चाहिए और अगर वह मुक्ति का करण है, तो मुक्ति ही होनी चाहिए । ऐसा कैसे होगा कि धर्म आपको बन्धन में भी डाल दे और मुक्ति भी दे । आपको इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है । आप कहें कि सूर्य प्रकाश भी देता है और अन्धकार भी, तो यह कैसे माना जा सकता है ? सूर्य तो प्रकाश ही देगा, अन्धकार देने का प्रश्न ही नहीं है, वह तो सदा प्रकाशमान रहता है । आप कहें कि आग गर्मी दे रही हैं और ठंडक भी पहुँचा रही है, तो ये दोनों विरोधी कार्य अग्नि कैसे कर देगी ? इसी प्रकार धर्म के भाव में एक प्रकार से सर्वथा शुद्ध आत्म तत्त्व का प्रकाश है, उस से भौतिक वासना का अन्धकार कहाँ से पैदा होगा ? क्योंकि एक ही कारण से दो परस्पर विरोधी कार्य कभी भी पैदा नहीं होते । धर्म का फल स्वर्गादि या मुक्ति ? Jain Education International - - - अभिप्राय यह है कि जब तक आप जैन दर्शन के मूल को नहीं पकड़ेंगे, तब तक आपको तत्त्व ज्ञान का स्पर्श नहीं होगा । एक पुप्य और धर्म की गुत्थी : ३६ एक ओर वह बन्धन में भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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