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है, मगर जितने अंश में राग का अंश बाकी रहा है, राग साफ नहीं हो पाया है, उतने अंशों में वह राग का अंश ही आत्मा के लिए बन्धन का हेतु बनता है। वह रागांश साधक को चाहे इन्द्र बना दे, चक्रवर्ती बना दे अथवा भले ही किसी अन्य उच्च पद पर बिठा .दे, लेकिन वह है तो बन्धन ही।
इस विषय में गहराई से चर्चा करने से पहले मैं आपसे एक बात और कहना चाहता हूँ कि आमतौर पर सम्भव है, बहुत से साधक कुछ विशिष्ट ग्रन्थों को पढ़ नहीं पाते हैं, लेकिन कम-से-कम कुछ चर्चाएं तो सुनते ही रहते हैं । सम्भव है, यहाँ पर बैठे हुए तत्त्वचर्चा में रुचि रखने वाले या कुछ ग्रन्थों का अभ्यास और मनन करने वाले देवगति प्राप्त होने के कारणों को तो जानते ही होंगे ? न जानते हों तो तत्त्वार्थसूत्र का वह सूत्र में ही प्रस्तुत कर देता हूँ
'सरागसंयम - संयमासंयमाऽकामनिर्जरा - बालतपांसि देवस्य'
अर्थात-देवगति प्राप्त होने के चार कारण हैं-१. सरागसंयम, २. संयमाऽसंयम, ३. अकामनिर्जरा और ४. बालतप। इस सूत्र के अनुसार देवगति का सर्वप्रथम हेतु 'सरागसंयम' है। जैनाचार्यों ने भी देवगति का कारण सरागसंयम को माना है। वस्तुतः सरागसंगम क्या है ? इस पर एक बात तो स्पष्ट रूप से आपके ध्यान में आ गई होगी कि केवल (निखालिस) संयम देवगति का हेतु होता तो 'सराग' विशेषण लगाने की जरूरत ही क्या थी ? लेकिन राग विशेषण यह प्रगट करता है कि राग-सहित जो संयम है, वह देवगति का हेतु है। आप इसका आशय समझ गए होंगे कि खाली संयम देवगति का कारण नहीं है, अपितु 'सरागसंयम' देवगति का कारण है। अन्यथा, इतना बड़ा विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता थी ? परन्तु एक बात इसमें अवश्य फलित होती है कि राग नहीं, संयम ही (फिर भले ही वह राग-सहित हो) देवगति का हेतु हुआ। बन्धन का मुख्य हेतुत्व संयम पर ही आरोपित हो जाता है।
___ इस दृष्टि को समझने के लिए आपको व्याकरण की गहराई में उतरना पड़ेगा। व्याकरण में 'विशेषण' और 'विशेष्य' दोनों में विशेष्य मुख्य और विशेषण गौण माना जाता है। जैसे काला
चिन्तन के झरोखे से :
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