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________________ सर्वांगीण उच्चतम अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए किया जाने वाला निर्मल श्रम ही साधक को कभी न बुझने वाला अमर प्रकाश प्रदान करता है। श्रमण अपने आराध्य वीतराग भगवान् की उपासन करता है, सद्-गुरु को भी। पर यह उपासना भिक्षा-वृत्ति की नहीं है कि किसी से कुछ लेना है। यह उपासना मात्र स्व-स्वरूप की पहचान के लिए है । जैसा शुद्ध स्वरूप उन महनीय भगवत् स्वरूप आत्माओं का है, वैसा ही मूलतः मेरा भी है। मैं आवरणों से मुक्त हो जाऊँ, तो मैं भी वैसा ही हूँ। जितने भी, और जो भी आवरण हैं, वे सब विभाव हैं, स्वभाव नहीं। एक समय जो सूर्य सघन काले बादलों से घिरा है, और दूसरे समय में वही सूर्य इन बादलों से मुक्त है। बस, इतना ही तो अन्तर है- भक्त और भगवान् में, साधक और सिद्ध में । श्रमण, साधक है, वह सिद्धत्व के लिए श्रम कर रहा है। अपने हाथ, जगन्नाथ । २. समण का दूसरा संस्कृत रूप है-समन । समन का अर्थ है-समभावी । 'समण' समन इसलिए है कि वह सबको आत्मवत समझता है, सबके प्रति समभाव रखता है। दूसरों के प्रति किये जाने वाले व्यवहार को कसौटो स्वयं को आत्मा है। जो बात. जो स्थिति, जो क्रिया अपने को बुरी लगती है, वह दूसरों के लिए भी बुरी है _ 'आत्मन: प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।' यही श्रमण के समग्र व्यवहारों का आधार स्तम्भ है। समण धर्म का यही मूल तत्त्व है कि न किसी के प्रति द्वष करो, न घणा। हम सबके हैं, सब अपने हैं। एक ही दृष्टि है, और वह है-समत्व की। भेद-भाव जैसा कुछ है ही नहीं, समण के अन्तर्मन में। कहा है आज की भाषा में भी ऐसा ही कुछ किसी ने "किस को देखें किस तरह हम, किस को देखें किस तरह ! एक आलम है नजर में, एक दुनिया दिल में है !!" ३. समण का तीसरा संस्कृत रूप 'शमन' भी होता है । अपनी वृत्तियों को, चित्त के उद्वेगों को शान्त रखना ही शमन है । समण शब्द का निर्वचन ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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