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________________ मानव का जीवन ऊँचा या नीचा, अच्छा और बुरा, अपनी चित्तवत्तियों के अनुसार ही होता है। अकुशल वृत्तियों से आत्मा का पतन होता है, और कुशल वृत्तियों से उत्थान । अकुशल अर्थात् दुर्वृत्तियों को उपशान्त करना और कुशल वृत्तियों का विकास करना ही समण-साधना का परम उद्देश्य है। इस प्रकार श्रम, सम और शम-इन तीन तत्त्वों पर ही व्यक्ति तथा समाज का अभ्युदय एवं निःश्रेयस आश्रित है। बस, इतने-से में समण संस्कृति का समग्र निष्कर्ष समाहित हो जाता है । शास्त्रीय दृष्टि से तीनों ही भाव-'समण' शब्द से ग्राह्य हैं, परन्तु 'श्रमण' शब्द अधिक प्रचलित है। और, उसमें साधना का स्वतः स्फूर्त 'श्रम' अर्थ स्पष्टतः परिलक्षित होता है। अनुयोग द्वार सूत्र के उपक्रमाधिकार में भाव सामायिक का निरूपण करते हुए 'समण' शब्द के निर्वचन पर भी काफी अच्छा प्रकाश डाला गया है । इस प्रसंग की गाथाएँ बड़ी भावपूर्ण हैं - "जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ, सममणइ तेण सो समणो ।" -'जिस प्रकार दुःख मुझे अच्छा नहीं लगता है, उसी प्रकार संसार के अन्य सब जीवों को भी अच्छा नहीं लगता है । यह समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है, न किसी हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है, सर्वत्र सम रहता है, वह 'समण' है। मूल सूत्र पाठ में 'सममणइ' शब्द आता है, उसकी व्याख्या करते हुए मलधार-गच्छीय आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं "सममणति सर्वजीवेसु तुत्यं वर्तते यतस्तेनासी समण इति ।" 'अण्' धातु वर्तन अर्थ में है, और पूर्व का 'सम' उपसर्ग तुल्यार्थक है। अतः जो साधक सब जीवों के प्रति सम वर्तन अर्थात् समदर्शन एवं सम समाचरण करता है, वह समण है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही कहा है 'समयाए समणो होइ'-समता से ही समण होता है। ३२ चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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