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समण शब्द का निर्वचन
भारत की प्राचीन संस्कृति चिर अतीत से ब्राह्मण और श्रमण नामक दो धाराओं में बहती आ रही है । भारत के सुसमृद्ध भौतिक व सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व ब्राह्मण - धारा करती है, और उसके आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व श्रमण-धारा । ब्राह्मण बाहर में समाज परिष्कर्ता है, तो श्रमण अन्दर में आत्मा का संस्कर्ता है । यह विभाग ऐकान्तिक नहीं है, केवल मुख्य और गौण का ही प्रश्न है । वैसे दोनों ने दोनों ही प्रकार के जीवन को यथाप्रसंग निखारा है, संवारा है ।
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श्रमण का मूल प्राकृत रूप समण है । प्राचीन जैन- वाङ्मय में 'समण' का सहस्राधिक बार प्रयोग हुआ है । समण के संस्कृत रूपान्तर तीन होते हैं— श्रमण, समन और शमन । 'समण-संस्कृति' का वास्तविक मूल स्वरूप इन्हीं तीन संस्कृत रूपों पर से अभिव्यक्त हो जाता है ।
१. 'श्रमण' शब्द 'श्रमु' धातु पर से निष्पन्न होता है । इसका अर्थ है 'श्रम' करना । श्रमण संस्कृति का प्रथम विचार सूत्र हैव्यक्ति का विकास या ह्रास व्यक्ति के स्वयं के हाथों में है । कोई दूसरा उसे विकसित या अविकसित नहीं कर सकता। दूसरा कोई निमित्त भले ही हो जाए, पर कर्ता वह स्वयं ही होता है । सुखदु:ख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है । अतः साधना के क्षेत्र में श्रमण का अर्थ है, जो स्वयं के अपने श्रम से, पुरुषार्थ से, साधना से भव-बन्धनों को तोड़ रहा है, अपने को मुक्त कर रहा है । अपनी मुक्ति के लिए, स्व-स्वरूपोपलब्धि के लिए श्रमण अपने सिवा अन्य किसी से कोई भी अपेक्षा नहीं रखता है । उसका एक मात्र आदर्श है - 'अपना श्रम, अपनी श्री ।' जीवन के
चिन्तन के झरोखे से :
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