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________________ को उजागर करने वाला है। वह अन्दर में तो मूक, चपचाप, निष्क्रियता से प्रवेश करता है, किन्तु बाहर समाज में उसका प्रवेश सिंहनाद के साथ पूर्ण सक्रियता से होता है। अतः दीक्षित साधुओं का सामाजिक दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा-सूत्र होना चाहिए-"तुम सर्व प्रथम केवल एक मनुष्य हो। तुम्हारी कोई जाति नहीं है, तुम्हारा कोई पंथ, वर्ण या वर्ग नहीं है। न तुम्हारा कोई एक प्रतिबद्ध समाज है, और न राष्ट्र है। तुम सब के हो, और सब तुम्हारे हैं । तुम एक विश्व - मानव हो। विश्व की हर अच्छाई तुम्हारी अपनी है। तुम्हारा हर कर्म विश्व - मंगल के लिए प्रतिबद्ध है। अतः तुम्हारी अहंता और ममता का उदात्तीकरण होना चाहिए। इतना उदात्तीकरण, कि उसमें समग्र विश्व समा जाए। इस संदर्भ में एक प्राचीन विश्वात्मा मुनि के शब्द दुहरा देता हूँ "अहंता - ममताभावस्, त्यक्तु यदि न शक्यते । अहंता - ममताभावः, सर्वत्रैव विधीयताम् ॥" उक्त पवित्र विचार के प्रकाश में ही आज साधुओं को दीक्षित करने की आवश्यकता है। क्षुद्र - हृदय साधु से बढ़कर कोई बुरी चीज नहीं है, दुनिया में । सच्चा साधु वह है, जो विश्वात्मा है। विश्वात्म-भाव में से ही परमात्म-भाव प्रस्फुटित होता है। कुछ ऐसे ही प्रबुद्ध, विवेकी एवं महामना साधु - जनों की आज विश्व को बहुत बड़ी अपेक्षा है । साधु का अर्थ ही सज्जन है। वह सज्जनता का, शालीनता का ध्र व केन्द्र है। इस प्रकार साधु संस्था पर विश्व में सर्वतोमुखी सज्जनता की प्रतिष्ठा का दायित्व है। आज विश्व की भौतिक प्रगति ने मानव को सब ओर से असंतुष्ट बना रखा है । आज का मानव दिशा - भ्रष्ट हो गया है, होता जा रहा है। विभिन्न प्रकार के घातक और भंयकर उपकरणों के मर्यादाहीन निर्माण ने जीवन की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। निरन्तर की बढ़ती जाती उत्तेजनाओं ने जीवन की सहज शान्ति को भंग कर दिया है। तुच्छ स्वार्थ एवं अहंकार, मानवता की गरिमा के प्यासे बनकर रक्त - पिपासु भेड़ियों की भाँति मैदान में निकल पड़े हैं। ऐसे नाजुक समय में साधु-संस्था पर दुहरा उत्तरदायित्व आ पड़ा है। उसे अपने को भी संभालना है और समाज को भी। अतः उसे चाहिए, कि अपनी आन्तरिक अनन्त चेतन दीक्षा का अर्थबोध । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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