SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ता के जागरण के साथ, वह जन जागरण का दायित्व भी पूरा करे । वह वैयक्तिकता के क्षुद्र घेरे में आबद्ध होने वाली स्वार्थलिप्त दुनिया को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की पवित्र घोषणा दे, उसे सच्ची मानवता का पाठ पढ़ाए । जीवन की क्षुद्र विकृतियों से ऊपर उठकर अन्तर् में परमात्म-तत्त्व की खोज और उसके अंग स्वरूप विश्व मानवता का आत्मौपम्य दृष्टि से नव-निर्माण, संक्षेप में यही है मुनि दीक्षा का, साधुता का मंगल आदर्श । सितम्बर १६७३ - २२ Jain Education International सामूहिक साधना जैन-धर्म की मूल परम्परा में व्यक्ति साधना के क्षेत्र में स्वतन्त्र होकर अकेला भी चलता है और समूह या संघ के साथ भी । एक ओर जिनकल्पी मुनि संघ से निरपेक्ष होकर व्यक्तिगत साधना के पथ पर बढ़ते हैं, तो दूसरी ओर स्थविरकल्पी विराट् समूह, हजारों साधु साध्वियों का संघ, सामूहिक जीवन के साथ साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है । जैन धर्म और जैन परम्परा ने व्यक्तिगत धर्म साधना की अपेक्षा सामूहिक साधना को अधिक महत्त्व दिया है । सामूहिक चेतना और समूहभाव उसके नियमों के साथ अधिक जुड़ा हुआ है | अहिंसा और सत्य को वैयक्तिक साधना भी संघीय रूप में सामूहिक साधना की भूमिका पर विकसित हुई है । अपरिग्रह, दया, करुण और मैत्री की साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित पुष्पित हुई है । जैन - परम्परा का साधक अकेला नहीं चला है, बल्कि समूह के रूप में साधना का विकास करता चला है । व्यक्तिगत हितों से भी सर्वोपरि संघ के हितों का महत्त्व मानकर चला है । जिनकल्पी जैसा साधक कुछ दूर अकेला चलकर भी अन्ततोगत्वा संघीय जीवन में ही अन्तिम समाधान कर पाया । - - - चिन्तन के झरोखे से : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy