________________
एक हो जाते हैं । अलग से कोई भी बच नहीं रहता है। परिवार तथा समाज को छोड़ देने की केवल एक चलती भाषा बच रहती है, अन्यथा प्राणिमात्र के प्रति भावात्मक एकता में किसी को कहीं छोड़ देने जैसे क्या रहता है ?
दीक्षार्थी अपने अन्दर में शुद्धत्व के लिए गति करता है और बाहर में समाज के शुभत्व के लिए यत्नशील होता है। अतः हमें किसी को साधु इसलिए नहीं बनाना है कि संसार असार है,स्वार्थी है, झूठा है। अपितु इसलिए बनाना है, कि शरीर, इन्द्रिय और मन आदि की अनेकानेक सूक्ष्म एवं साथ ही सघन परतों के नीचे दबा अनन्त चेतना का जो अस्तित्व है- उसकी उपलब्धि एवं अभिव्यक्ति ही साधक जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है, उसकी खोज दीक्षार्थी प्रशान्त मन - मस्तिष्क से कर सके। यह वह स्थिति है, जहाँ परिवार या समाज के छोड़ने या छ ट जाने का अच्छा-बुरा कोई विकल्प ही मन में नहीं रहता। इस अर्थ में छोड़ने और छ टने का पूर्ण विस्मरण हो जाता है। यह त्याग का भी त्याग है, 'मुच' धातु के कर्तृत्व का विसर्जन है, जो आज के साधु जीवन में ठीक तरह हो नहीं पा रहा है । अस्तु, दीक्षा सहजानन्द की प्राप्ति के द्वारा अन्तर्मन की रिक्तता को समाप्त कर देती है, परम सत्य के निर्मल एवं शाश्वत आलोक के लिए द्वार खोल देती है। परमचेतना की खोज के लिए साधु-जीवन एक अवसर है। यह अन्तिम साध्य नहीं, बीच का एक साधन है। इसके द्वारा साधक अपने परम चैतन्य स्वरूप स्वतत्त्व के निकट पहुँच सकता है, उसे पा सकता है, बस यही अन्तर्जगत् की दृष्टि से दीक्षा के सही मूल्य की उपलब्धि है, दीक्षा की सही उपयोगिता है ।
बाह्य जगत की दष्टि से दीक्षा का उद्देश्य जनता में अशुभ की निवत्ति एवं शुभ की स्थापना है। जनता को हर प्रकार के अन्ध-विश्वासों से मुक्त करना और उसे यथार्थ सत्य का परिबोध कराना, साधु-जीवन का सामाजिक कर्तव्य है। साधु अन्धकार का नहीं, प्रकाश का प्रतीक है, अशान्ति का नहीं, शान्ति का प्रतीक है, शान्ति का सन्देश - वाहक है, भ्रान्ति का नहीं, सत्य का पक्षधर है। वह समाज का निर्माता है, समाज के नैतिक पक्ष
चिन्तन के झरोखे से :
२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org