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लिए भूमि - पुत्र किसान दिन-रात कठोर श्रम करके ऊँची-नीची भूमि को समतल कर रहा है, हल चलाकर उसके गड्ढे पाट रहा है, मिट्टी की गांठे एवं ढेले तोड़ - तोड़ कर उसे साफ और सरल बनाते जा रहा है। उससे पूछे कोई-"इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो ? पृथ्थी तो सर्वरसा है, कहीं भी बीज डाल दो, अंकुर बनकर निकल आएगा, फिर हल चलाना, भूमि को सपाट बनाना, गड्ढे भरना और कंकड़ - ढेले तोड़ना, यह सब क्यों कर रहे हो?" तो चतुर किसान उसकी अज्ञता पर हँसेगा- "तू क्या जाने अन्न पैदा करना ? भूमि जब तक सरल-सपाट नहीं होगी, तो उसमें अन्न कैसे पैदा होगा ? कैसे फसल लह - लहाएगी ?"
अतः जो जीवन वंशी की तरह सरल होगा, ग्रन्थिरहित होगा, वही भगवान् को प्रिय होगा । जो जीवन खेती के योग्य भूमि की तरह साफ समतल होगा, वह सद्गुणों की फसल पैदा कर सकेगा। भूमि में गड्ढे, झाड़ झंखाड़ होने से खेती के शत्रु एवं हिंसक जीवों को आश्रय मिलता है । जीवन में भी जहाँ दंभ के गड्ढे होते हैं, कपट एवं कुटिलता के झाड़ - झंखाड़ होते हैं, वहाँ दुर्गुणों को आश्रय मिलता है, बुराइयां पनपती हैं, और वे सद्गुणों की फसल को निगलती जाती हैं। जीवन के खेत में सद्गुणों की अच्छी फसल उगाना हो, तो दंभ, कुटिलता एवं मायाचार के झाड़ - झंखाड़, उखाड़ कर फैकने ही होंगे।
_ 'माया' शब्द का विश्लेषण करते हुए एक धर्माचार्य ने अर्थयोजना की है । वह कहता है- माया शब्द पुकार के कह रहा है "म-आयाः अर्थात् मेरे पास मत आओ। मेरे पास सब बुराइयाँ, सब दूर्गण भरे पड़े हैं। यदि इधर आओगे तो ये बुराइयाँ तुम से लिपट जाएँगी।" दुर्गणों का मूल : माया : - गहराई से देखा जाए, तो हर दुर्गुण के मूल में 'माया' रही हुई है। संसार में जितनी भी हिंसा होती है, हत्याएँ होती हैं, राजनैतिक और धार्मिक लड़ाइयाँ होती हैं, उनके मूल में यही माया, दंभ और कुटिलता है । असत्य, धोखा, छल, फरेब, विश्वासघात, आजकल की कूटनीति, दल-बदल वृत्ति, और दलीय संघर्ष
चिन्तन के झरोखे से।
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