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भगवान् महावीर, महावीर क्यों हैं ?
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अध्यात्म चेतना के आचार्य नाम और रूप को जगत् अर्थात् संसार की सीमा में आबद्ध करते हैं । उनकी ओर से प्रचारित किया गया सुप्रसिद्ध सूत्र है- "नामरूपात्मकं जगत् ।" मेरी उक्त धारणा से कोई विमति नहीं है । फिर भी यह मानता है, कि अपनेअपने स्थान पर नाम और रूप को एक विलक्षण महत्त्व प्राप्त है । उसे ही नकारा नहीं जा सकता है । मैं यहाँ प्रस्तुत में रूप को एक ओर छोड़ देता है, केवल नाम की ही चर्चा करता है । कोई भी व्यक्ति हो या वस्तु, व्यवहार में उसका कोई न कोई नाम होता ही है । और कुछ न कुछ अच्छा - बुरा अर्थ बोध भी होता है । अज्ञात व्यक्ति या वस्तु के मिलते ही मन में सबसे प्रथम प्रश्न यही उठता है, कि यह क्या है, कौन है ? और, इसका क्या नाम है ? नाम की अज्ञातता के कारण कभी - कभी अति निकट के सम्बन्धित जन भी सामने खड़े हुए भी उपेक्षित हो जाते हैं । उपेक्षित ही नहीं, अवज्ञात एवं अपमानित भी हो जाते हैं । अतः नाम की महिमा महतो महीयान् है । यही हेतु है, कि भूतकाल के महान् दिव्य पुरुष अर्थात् दिव्यात्माएँ गणनातीत काल के व्यतीत हो जाने पर भी आज तक विस्मृत नहीं हुए । लाखों आज भी उनके नाम का स्मरण करते हैं। उनके मालाएँ जपते हैं । वैष्णव परम्परा में तो नाम के एक विशिष्ट साधना ही है । प्रातः शय्या से उठते भक्त भगवान् के नाम का भक्ति भाव से स्मरण करते हैं । कोई भी शुभ काम करना हो, तो सर्वप्रथम अपने आराध्य देव के नाम का स्मरण किया जाता है । नामों की स्थिति विचित्र है । नामकरण संस्कार के समय कुछ नाम स्वयं ही समझ कर अथवा दूसरे
चिन्तन के झरोखे से 1
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करोड़ों भक्त पवित्र नाम की
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स्मरण की भी
उठते लाखों
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