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महत्त्व देते हैं, किन्तु दीक्षा जौर केवलज्ञान ( अर्हत् ) कल्याणक के प्रति कोई महिमान्वित कार्यक्रम उपस्थित नहीं करते हैं । साधारण जन - समाज में ये दोनों महत्त्वपूर्ण कल्याणक एक प्रकार से उपेक्षित हैं । क्या यह हमारी मानसिक स्थिति उचित है ?
वैदिक परम्परा में तो जन्म दिन को महत्त्व इसलिए प्राप्त है, कि वहाँ मूलतः मान्य महापुरुष को ईश्वरीय रूप में मान्यता प्राप्त है । वे मानव रूप में अवतरित होते हैं । इसलिए उन्हें अवतार कहते हैं । उनका समग्र जीवन ही एक लीलारूप है, साधना - रूप नहीं । अतः वहाँ साधना का कोई महत्त्व नहीं है । मात्र जन्म को ही हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है ।
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अब रहा निर्वाण, उसके लिए तो वहाँ कोई उत्सव भी नहीं है । न ही निर्वाण की तिथि विशेष का कोई उल्लेख है । किन्तु, जैन - धर्म तो मूलतः साधना का धर्म है । वहाँ मुलतः कोई जन्म से ईश्वर नहीं होता है । साधना के द्वारा ही उत्तार रूप में सर्वोच्चता को प्राप्त होता है । अतः मैं दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक पर्व के प्रति कुछ अधिक ही आकृष्ट हूँ । अच्छा हो उक्त कल्याणकों को भी भक्तों द्वारा महिमामंडित किया जाए ।
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वैशाख शुक्ला दशमी को भगवान् महावीर का केवलज्ञान कल्याणक दिन है । उस दिन ही वे साढा बारह वर्ष की सम्यक्साधना के द्वारा ही अरहन्त, जिन एवं केवली हुए हैं । यह पर्व दिन किसी विशिष्ट महान् उच्चतर संकल्प का दिवस है । अतः यह मात्र एक दिन ही नहीं, पर्व है । आशा है, हम उक्त पर्व की पुण्य स्मृति में कोई विशिष्ट पुण्य संकल्प करें ।
जून १६८६
तीर्थंकरों के कल्याणक । एक समीक्षा t
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