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गया। शेर ने झपटकर उसे पकड़ तो लिया, किन्तु शिशु समझकर उसे मारा नहीं। शियाल के बच्चे को ज्यों - का - त्यों लेकर अपने स्थान पर लौट आया। शेरनी ने शेर का स्वागत करते हुए कहास्वामी ! कुछ लाए हो खाने के लिए? आप गए हैं, तब से अब तक भूखी बैठी हूँ और बच्चे भी भूखे हैं।
__शेर ने कुछ लज्जाते हुए कहा-क्या करूं ? प्रिये ! आज मेरे भाग्य ने कुछ भी साथ नहीं दिया। दिन भर यू ही इधर-उधर भटकता रहा, कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका, मार्ग में यह शियाल का बच्चा मिला है। बाल समझ कर इसे मारा तो नहीं, यों ही इसे जीवित ही ले आया है। इसे मारकर तू अपने आज के भोजन का काम चला ले।
शेरनी भी, शेरनी ही थी। माता का वात्सल्यपूर्ण हृदय रखती थी। अतः उसने शेर से कहा-जब आपने ही इसे बाल समझकर नहीं मारा, मैं तो बच्चों की माँ हूँ। मैं इसे कैसे मार सकती हूँ ? अब तो यह मेरे दो पुत्रों के समान तीसरे पुत्र के रूप में मेरे पास रहेगा।
शेरनी ने अपने दोनों बच्चों के समान ही उसे पाल - पोषकर कुछ बड़ा कर लिया। तीनों बच्चें साथ - साथ घूमते, साथ - साथ खाते-पीते और खेलते । उन तीनों को अपनी जातीय भिन्नता का भी कोई विशेष बोध नहीं था। तीनों ही शेरनी को ही अपनी माँ समझते थे।
एक दिन अपने निवास स्थान की कुछ दूरी पर तीनों बच्चे खेल रहे थे। इधर - उधर भाग - दौड़ कर रहे थे । इतने में जंगल का एक विशाल - काय हाथी उधर से आ निकला। वह अपनी धुन में आगे कहीं जा रहा था। शेर के बच्चे तो शेर ही थे न ? अतः उन्होंने कहा-आओ, आज हाथी का शिकार करें। बड़ा मजा आएगा। हाथी महान् विशाल काय था, शेर के बच्चे लघुकाय थे, फिर भी अपने सिंह जातीय स्वभाव के कारण निर्भय एवं निर्द्वन्द्व थे। अतः वे हाथी से डरे नहीं, अपितु हाथी को मारने की बात करने लगे। परन्तु, वह शियाल का बच्चा तो मूलतः शियाल ही था न ? उसमें सिंह के बच्चों जैसी निर्भयता कहाँ
पहले अपने को परखो तो सही :
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