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आधार पर । यह कोई आदर हुआ ? यदि यही आदर है तो फिर आदर शब्द का इससे बड़ा दूसरा अपमान और क्या होगा ? दोनों ही महापुरुषों को सही अर्थ में आदर मिलता है तब, जबकि वे साधारण वासना-ग्रस्त मानव की तुच्छाति तुच्छ एवं क्षद्राति-क्षुद्र अधो भूमिका से ऊपर उठते हैं । और, अपने अन्तरतम की दिव्य भगवत् शक्ति को उग्र साधना के द्वारा जागृत करते हैं ।
बाद आज भी वे
आप जानते हैं, इन वन्दनीय महापुरुषों को कितने भयंकर विघ्नों, बाधाओं एवं आपत्तियों का सामना करना पड़ा। उनके साधना के दिव्य संकल्पों को क्षत-विक्षत करने के लिए कितने प्राकृतिक और कितने आसुरिक प्रयत्न हुए हैं । किन्तु, वे शरीर से भले ही पहले जैसे ही अस्थि, मांस, मज्जा और रक्त के बने देहधारी मानव थे, किन्तु अन्तर में वे संकल्प शक्ति के बल पर वज्रातिथे । जैसे- जैसे उन पर प्रहार होते गए, वे अधिकाधिक एक महान् शक्तिशाली दिव्य भगवत् - शक्ति के रूप में ऊर्ध्वगामी होते गए । उनकी आध्यात्मिक चेतना पतन की ओर न जाकर और अधिक उन्नत होती गई । उनके भगवान् होने का यही एक दिव्य रूप है । अपने समय में तो उनकी पूजा सब ओर प्रसाद पाती ही रही, किन्तु सहस्राधिक वर्षों के जन जन के पूज्य हैं । वे कालजयी त्तम हैं । उनकी स्तुति में जो स्तोत्र नाम स्तोत्र हैं । उन स्तोत्रों में उन्हें एक उर्जस्वल नामों से सम्बोधित किया गया । सहस्र नामों की गणना का यह महान् स्तुत्य प्रत्यन अवश्य किया । किन्तु मैं कहता हूँ, दृढ़ संकल्प के साथ कहता है, क्या ये महापुरुष सहस्र नामों की गणना में ही सीमित हो गए। नहीं, नहीं ! यह तो एक बाल प्रयत्न था भक्त मन का, जो मात्र एक भक्ति के रूप में भक्त के मनस्तोष के रूप में एक मनोरंजन था । शब्द मिल नहीं पा रहे हैं - सही अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए। तथापि एक शब्द है - 'अनन्त श्री' | भगवदात्माओं की श्री कभी सीमित नहीं होती । अत: उन्हें अनन्त श्री से विभूषित किया । वास्तव में यह मानकर ही सीमित शब्द को विराम लेना है ।
पुरुष क्या, पुरुषो
पुरुष हैं रचे गए,
उनमें अनेक सहस्र
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से एक महान् एवं
भक्त रचनाकारों ने
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चिन्तन के झरोखे से !
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