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क्रियाओं के करने में सक्षम होता है । अनेक कार्य सम्पन्न भी करता है ।
तब वह लोक - मंगल के
दीपक तेल और बाती लिए यों ही बैठा रहे, तो वैठा रहे । स्वयं भी अंधेरे में डूबा रहेगा, और आस- पास के प्रदेश को भी अंधेरे में डुबाये रखेगा । किन्तु, ज्यों ही वह किसी भी रूप में हो, अग्नि कणिका का स्पर्श पाता है, तो बस, स्पर्श मात्र से ही ज्योति
हो जाता है । अपने चारों ओर दिव्य प्रकाश फैला देता है । अंधकार को विनष्ट करने में उसे कुछ भी देर नहीं लगती ।
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मनुष्य के अन्तर् - हृदय में भी संकल्प की एक नन्ही सी कणिका विद्यमान रहती है । कोई भी उससे रिक्त नहीं है और वह अग्नि कणिका और कोई नहीं, संकल्प शक्ति है । यदि मनुष्य को ज्योतिर्मय बनना है, अंधकार से संघर्ष करना है, और उसे नष्ट करना है, तो उस अन्तर्-निहित सूक्ष्म कार्य एवं सुप्त संकल्प शक्ति को जगाना होगा, विराट् बनाना होगा । वह जब भी जग जाएगी, साधारण से साधारण मनुष्य भी कुछ ही समय में असाधारण हो जाएगा । सर्वत्र निरादर की ठोकरें खानेवाला शीघ्र ही सब ओर समादर की जयध्वनियों से संपूजित हो जाएगा ।
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इतिहास के पृष्ठों पर हम एक ओर राम एवं कृष्ण को देखते हैं । वे मूलत: नर हो तो थे । किन्तु, अपने दृढ़ संकल्पों से नारायण बन गए, भगवान् के रूप में पूजास्पद हो गए। उनके जीवन में विघ्न कुछ कम नहीं आए। बाधाओं के दुर्गम पर्वत कितने अधिक आए । यदि कोई और होता, तो उसे वहीं बैठकर रोने के सिवा और कुछ काम नहीं होता । किन्तु, ये महापुरुष विघ्नबाधाओं को हँसते हुए पार करते गए, और अपने लक्ष्य को अन्ततः पार करके ही रहे ।
दूसरी ओर भारतीय इतिहास के दो महापुरुष और हैं । एक हैं— श्रमण भगवान् महावीर और दूसरे हैं - तथागत बुद्ध । दोनों में ही भगवत्ता की शक्ति अन्तर्निहित थी । किन्तु जब वे राजकुमार थे, तब क्या था । राजकुमार ही तो थे न ? इन्हें तब भी आदर मिलता था । किन्तु, आप जानते हैं, वह आदर किस आधार पर मिलता था ? वह मिलता था, भय एवं प्रलोभन के
संकल्पो हि गरीयान् :
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