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संकल्पो हि गरीयान्
मानव की जीवन संस्कृति का सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं अत्यावश्यक अमृत स्रोत है, उसका अपना संकल्प |
मनुष्य बाहर में, बाहर की विभूतियों में कितना भी महान् क्यों न हो, यदि उसमें संकल्प - शक्ति - अजेय एवं अपराजित है, तो वह यथार्थ में महान् है । अन्यथा वह केवल अन्यथा ही है । अर्थात् मानव देह के होते हुए भी अन्दर में वह मानव नहीं, कुछ और ही है ।
संकल्प - शक्ति की गरिमा ही मनुष्य को गरिमा देती है । लोक जीवन में उसे महत्त्वपूर्ण आदरास्पद स्थान प्रदान करती है । बाहर में भले ही कुछ न हो उसके पास ऐश्वर्य जैसा, किन्तु यदि उसमें संकल्प - शक्ति है. महान् होने की उद्दाम तरंग है, कुछ-नकुछ यशस्वी कार्य करने की दृढ़ धारणा है, तो वह अवश्य ही एकन- एक दिन महान् होकर ही रहता है ।
प्रत्येक मनुष्य में सत्य तत्त्व का कोई-न-कोई बिन्दु तो अन्तर् में वश्य निहित रहता है । अपेक्षा है, उसे विराट् बनाने की, प्रतिक्षण गर्जते विशाल सिन्धु का रूप देने की ।
अग्नि का एक क्षीणकाय नन्हा सा कण, उसे योंही बाहर की आँखों से देखेंगे, तो वह कुछ भी नहीं है । पैर के जूते के तल्वे से ही उसे क्षणभर में कुचला जा सकता है । क्या देर लगती है, उसे मृत्यु के मुख का ग्रास बनाने में । किन्तु, यदि उसे विराट् बना दिया जाए, तो पता लगेगा कि उसमें कितनी महत्ती शक्ति रही हुई है । वह शक्ति जगती है, तभी वह दाहक, पाचक आदि
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चिन्तन के झरोखे से !
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