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-महाराज ! क्या तुमने निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता-इन छह दोषों को त्याग दिया है ?
रामायण तथा महाभारत के उक्त संक्षिप्त वर्णनों पर से स्पष्ट हो जाता है कि प्रशास्ता की कार्य - पद्धति एवं जीवन - चर्या कैसी होनी चाहिए? यदि संक्षेपतः उद्धृत उक्त वर्णनों में से अल्प - से - अल्प कुछ अंश भी आज के प्रशास्ता, भले ही वे किसी भी वर्ग - विशेष के हों, अपने जीवन में उतार सकें, तो वे स्वयं अपने जीवन तथा अपने आश्रित जन - जीवन के मंगल - कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकते हैं । क्या ऐसा हो सकता है ? कुछ भी हो ऐसा होना ही चाहिए । इसके अभाव में प्रशास्ता का न अपना हित है और न लोक - हित है।
"नान्यः पन्था विद्यते अयनाय ।" नवम्बर १९८८
विक्लबो वीर्यहीनो यः. स देवमनुवर्तते । वीराः संभावितात्मानो, न दैवं पर्युपासते ॥२३.१७
- जो कायर और निर्बल हैं, वे ही दव (भाग्य) का आश्रय लेते हैं। वीर और आत्म - निष्ठ देव की ओर कभी नहीं देखते। देवं पुरुषकारेण, यः समर्थ प्रबाधितुम् । न दैवेन विपन्नार्थः पुरुष सोऽवसीदति ॥२३.१८ --जो अपने पुरुषार्थ से दैव को प्रबाधित कर देने में समर्थ हैं, वे वीर मनुष्य कभी विपत्तियों से अवसन (दुःखित) नहीं होते हैं।
सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्म सदाश्रितः । सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नासति परं पदम् ॥११०.१३
-संसार में सत्य ही ईश्वर है, सत्य में ही सदा धर्म रहता है, सत्य सब गुणों का मूल है, सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।
-बाल्मीकी रामायण, अयोध्या काण्ड
भारतीय संस्कृति में प्रशास्ता की : कर्तव्य भूमिका :
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