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-तुम अपने आश्रित कुटुम्ब के लोगों, गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों व्यापारियों, शिल्पियों तथा दीन - दुखियों को धन • धान्य दे कर उन पर सदा अनुग्रह करते रहते हो न ?
कच्चिन्न लब्धाश्चौरा वा, वैरिणो वा विशाम्पते ।
अप्राप्तव्यवहारा वा, तव कर्मस्वनुष्ठिता ॥७६॥ -राजन् ! तुमने अपने महत्त्वपूर्ण पदों एवं कार्यों पर ऐसे लोगों को तो नियुक्त नहीं कर रखा है, जो लोभी, चोर, शत्र, अव्यावहारिक तथा अनुभव शून्य हों ? .
कच्चिच्छारीग्माबाधमौषधनियमेन वा।
मानसं वृद्धसेवाभिः, सदा पार्थापकर्षसि ॥६॥ --कुन्तीकुमार ! क्या तुम औषधि - सेवन या पथ्य - भोजन आदि नियमों के पालन द्वारा अपने शारीरिक कष्ट को तथा वृद्ध पुरुषों की सेवारूप सत्संग द्वारा मानसिक संताप को, सदा दूर करते रहते हो न ?
कच्चिच्छोको न मन्युयं त्वया प्रोत्पाद्यतेऽनघः । -निष्पाप नरेश ! तुम किसी के मन में शोक या क्रोध तो नहीं पैदा करते हो न ?
कच्चित् कृतं विजानीष, कर्तारं च प्रशंससि ।
सता मध्ये महाराज, सत्करोषि च पूजयन् ॥१२०।। -महाराज ! क्या तुम्हें किसी के किए हुए उपकार का पता चलता है ? क्या तुम उस उपकारी की प्रशंसा करते हो और साधु पुरुषों से भरी हुई सभा के बीच उस उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसका आदर - सत्कार करते हो न ?
कच्चिदन्धांश्च मूकांश्च पंगून व्यंगान् बान्धवान् ।
पितेव पासि धर्मज्ञ तथा प्रवजितानपि ॥१२॥ -धर्मज्ञ ! क्या तुम अंधों, गूगों, पंगुओं, अंगहीनों तथा बन्धु-बान्धवों से रहित अनाथों और संन्यासियों का भी पिता की भाँति पालन करते हो न ?
षडनी महाराज कच्चित् ते पृष्ठतः कृताः ।
निद्राऽऽलस्यं भयं क्रोधोऽमार्दवं दीर्घसूत्रता ॥१२६॥ ११२
चिन्तन के झरोखे से।
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