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________________ कुछ महानुभाव ऐसे भी हैं, जो दुराचार एवं अनाचार का पथ तो नहीं अपनाते लक्ष्मी के लिए, किन्तु भाग्य की माला जपते हए बैठे रहते हैं। उन्होंने सिद्धान्त बना लिया है-"भाग में जो होगा, वही मिलेगा।" श्रम करने से क्या होता है ? कुछ नहीं होता है। कभी कहा होगा, किसी प्रसंग में किसी ने--- "भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या, न च पौरषं।" कोई भी स्थिति हो, सर्वत्र भाग्य ही फलता है। भाग्य ही सफलता देता है। भाग्य के बिना न कोई विद्या ही काम आती है, न कोई पौरुष अर्थात पुरुषार्थ । जो व्यक्ति आलस्य-ग्रस्त हैं, कर्म से जी चराते हैं, श्रम से भागते हैं, उन्होंने ही उक्त सूत्र को जीवन का सिद्धान्त वाक्य बना रखा है। मैं भाग्य को अमुक अंश में मान्यता देता है, किन्तु वही सबकुछ नहीं है। किसी भी कार्य की निष्पत्ति में हेतु के रूप में अनेक कारणों की जो लम्बी शृखला है, उसमें एक कोने में भाग्य भी है । अत: उसका भी कुछ अर्थ है। उसे भी उचित मूल्य दिया जा सकता है। किन्तु, अन्धे होकर इतना मूल्य मत दो, ताकि स्वयं निर्मूल्य अर्थात् मूल्यहीन हो जाओ। किन्तु, देश का दुर्भाग्य है कि देश में प्रायः ऐसे ही व्यक्ति अधिक मिलते हैं, जो एकान्त भाग्यवाद की काली छाया में स्वयं में मूल्यहीन हो गए हैं। उन्होंने यत्र-तत्र प्रसंगवश कहे गए, श्रम - विरोधी भाग्यवादी सूत्र तो रट लिए हैं, किन्तु पुरुषार्थवाद के उन सूत्रों को भूल गए हैं, जो मृत जीवन के लिए संजीवनी का काम देते हैं। आलस्यवश मूर्दे की तरह पड़े हए लोग जिन सूत्रों के सहारे उठ कर महाबली भीमसेन की तरह जीवन-संग्राम में जूझने लगते हैं-उन श्रमवादी सूत्रों में से यहाँ एक सूत्र उपस्थित है "उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः । ___ दैवेन देयमिति का पुरुषाः वदन्ति ।" श्रमहीन मानवों का एक और भी दल है, जो निरन्तर आकाश की ओर आँख लगाये बैठा है, उसकी दष्टि ग्रहों एवं नक्षत्रों के अच्छे-बुरेपन पर लगी हुई है। हाथ में जन्मकुण्डली का बंडल लिए फिरते हैं। उनकी मान्यता है, कोई अच्छा ग्रह या नक्षत्र आएगा, तो अपने आप धन की वर्षा हो जाएगी। जो भी इच्छा होगी, वह सब पूरी हो जाएगी। परन्तु, उन्हें पता होना सशक्त श्रम में ही श्री का निवास है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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