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चाहिए, कि धरा पर से करोड़ों, अरबों, खरबों मीलों की दूरी पर रहे हए इन तथाकथित ग्रहों का तुम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ? जिस दिन जिस क्षण तुमने जन्म लिया, उसी दिन और उसी क्षण अन्य भी हजारों बालकों ने जन्म लिया है। मानव बालक ही क्यों, पशु, जलचर, कीट - पतंग आदि असंख्य - अनन्त प्राणियों ने भी जन्म लिया है। यदि तुम्हारी जन्म कुण्डली में अच्छा ग्रह है। और, उससे ही तुम्हारा सब - कुछ अच्छा होना है, तो उपर्युक्त तुम्हारे साथ ही जन्म लेने वालों का क्या होगा ? क्या वे भी धनकुबेर बन जाएंगे, राजाधिराज बन जाएँगे ? ये सब व्यर्थ की बातें हैं। भारतवर्ष के ऋषि - मुनि कर्म को महत्त्व देते हैं.। मनुष्य का जैसा कर्म होता है, तदनुकूल ही स्थिति मोड़ लेती है। पूर्व जन्म तो हमारे सामने नहीं है। प्रस्तुतः जन्म ही हमारे सामने है । अतः यहीं के कर्म को देखें कि वह कैसा है-अच्छा है या बुरा है ? अभद्र कर्म को छोड़कर भद्र कर्म के साथ श्रम का सम्बन्ध जोड़ दो'श्री' अपने आप बरसने लगेगी।
भारतीय पुराणों में समुद्र - मंथन की कथा है। भले ही वह एक रूपक कथा है। किन्तु, अतीव बोधप्रद है। देवों ने समुद्र का मंथन किया, तो उसमें से श्री अर्थात् लक्ष्मी का आविर्भाव हुआ, अमृत आदि अनेक अद्भुत वस्तुओं के साथ ? यह कथा क्या सूचना देती है ? यही सूचना देती है कि यूंही अल्प नाम मात्र के श्रम से भी कुछ नहीं होने वाला है। समुद्र मंथन जैसा विराट् एवं अदम्य श्रम होना चाहिए। कितनी बार बीच में निराशा आए, हताशा आए, किन्तु तुम निराशा एवं हताशा से अनुत्साहित होकर श्रम छोड़कर कायर व्यक्ति की भांति भागो नहीं। किन्तु, हिमाचल की तरह स्थिर - उन्नत मस्तक के साथ खड़े रहो। कुछ ही समय में तुम्हें स्थिति बदलती हई दिखाई देगी। अंधेरे में उजाला चमकता दिखाई देगा। पतझड़ में वसन्त विकसित होता हुआ मालुम पड़ेगा । अपेक्षा है, समुद्र मंथन जैसी रूपक - कथा के आधार पर दीर्घकाल तक के अदम्य साहस एवं श्रम की।
भारतीय संस्कृति का आदर्श है, बिना श्रम किए, बिना किसी उदात्त चरित्र को अपनाये यों ही इधर - उधर कुछ खा लेना पाप है । श्रम के साथ-भले ही वह श्रम किसी भी रूप में हो, किन्तु
चिन्तन के झरोखे से।
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